गर्ग संहिता
गिरिराजखण्ड : अध्याय 7
एक समय वहाँ दधि बेचने के लिये गोपवधुओं का समुदाय आ निकला। उनके नूपुरों की झनकार सुनकर मदनमोहन श्रीकृष्ण ने निकट आकर उनकी राह रोक ली। वंशी और नेत्र धारण किये श्रीकृष्ण ग्वाल-बालों द्वारा उनको चारों ओर से घेर लिया और स्वयं उनके आगे पैर रखकर मार्ग में उन गोपियों से बोले- 'इस मार्ग पर हमारी ओर से कर वसूल किया जाता है, सो तुम लोग हमारा दान दे दो'। गोपियाँ बोली- तुम बडे़ टेढे़ हो, जो ग्वाल बालों के साथ राह रोककर खडे़ हो गये ? तुम बडे़ गोरस-लम्पट हो। हमारा रास्ता छोड़ दो, नहीं तो माँ-बाप सहित तुमको हम बलपूर्वक राजा कंस के कारागार में डलवा देंगी । श्रीभगवान ने कहा– अरी ! कंस का क्या हर दिखाती हो ? मैं गोओं की शपथ खाकर कहता हूँ, महान उग्रदण्ड धारण करने वाले कंस को मैं उसके बन्धु-बान्धव सहित मार डालूँगा, अथवा मैं उसके मथुरा से गोवर्धन की घाटी में खींच लाऊंगा। श्रीनारदजी कहते हैं– राजन ! यों कहकर बालकों द्वारा पृथक-पृथक सबके दही पात्र मँगवाकर नन्दनन्दन बडे़ आनन्द के साथ भूमि पर पटक दिये। गोपियाँ परस्पर कहने लगीं- 'अहो ! यह नन्द का लाला तो बड़ा ही ढीठ और निडर है, निरकुंश है। इसके साथ तो बात भी नहीं करनी चाहिये। यह गाँव में तो निर्बल बना रहता है और वन में आकर वीर बन जाता है। हम आज ही चलकर यशोदाजी ओर नन्दरायजी से कहती है। 'यों कहकर गोपियाँ मुस्कराती हुई अपने घर को लौट गयीं। इधर माधव ने कदम्ब और पलाश के पत्ते के दोने बनाकर बालकों के साथ चिकना-चिकना दही ले-लेकर खाया। तब से वहाँ वृक्षों के पत्ते दोने के आकार के होने लग गये। नृपेश्वर ! वह परम पुण्य क्षेत्र 'द्रोण' नाम से प्रसिद्ध हुआ। जो मनुष्य वहाँ दहीदान करके स्वयं भी पत्ते में रखे हुए दही को पीकर उस तीर्थ को नमस्कार करता है, उसकी गोलोक से कभी च्यूति नहीं होती। जहाँ नेत्र मूँदकर माधव बालकों के साथ लुका-छिपी के खेल खेलते थे, वहाँ 'लौकिक' नामक पापनाशन तीर्थ हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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