गर्ग संहिता
गिरिराजखण्ड : अध्याय 5
’वृषभानुनिन्दनी राधा’ जो कीर्ति के भवन में प्रकट हुई है, उसके साक्षात पति ये ही हैं, इसलिये इन्हें ‘राधापति’ भी कहा गया है। ये साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्ण के असंख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति हैं और सर्वत्र व्यापक होते हुए भी स्वरूप से गोलोकधाम में विराजते हैं। नन्द ! वे ही ये भगवान भूतल का भार उतारने, कंसादि दैत्यों को मारने तथा भक्तों का पालन करने के लिये तुम्हारें पुत्र रूप में प्रकट हुए हैं। भरतवंशी नन्द ! इस बालक के अनन्त नाम हैं, जो वेदों के लिये भी गोपनीय हैं तथा इसकी लीलाओं के अनुसार और भी बहुत-से नाम विख्यात होंगे। अत: इसके कितने ही महान विलक्षण कर्म क्यों न हों, उनके सम्बन्ध में कोई विस्मय नहीं करना चाहिये। गोपगण ! अपने पुत्र के विषय में गर्गजी की कही हुई इस बात को सुनकर मैं कभी संदेह नही करता, क्योंकि पृथ्वी पर वेद-वाक्य और ब्राह्मण-वचन ही प्रमाण हैं’’। गोप बोले– यदि महामुनि गर्गाचार्य तुम्हारे घर आये थे, तब उसी समय नामकरण-संस्कार में तुमने भाई-बन्धुओं को क्यों नहीं बुलाया ? चुपचाप अपने घर में ही बालक का नामकरण-संस्कार कर लिया। यह तुम्हारी अच्छी रीति है कि सारा कार्य घर में ही गुपचुप कर लिया जाये। श्रीनारदजी कहते हैं– राजन् ! यों कहकर क्रोध से भरे हुए गोप नन्द मन्दिर से निकलकर वृषभानुवर के पास गये। वृषभानुवर के पास गये। वृषभानुवर नन्दराज के साक्षात सहायक थे, तथापि इसकी परवाह न करके जातीय संघटन के बल से उन्मत्त हुए गोप उनके पास जाकर बोले। गोपों ने कहा - हे वृषभानुवर ! तुम हमारे जाति वर्ग में प्रधान और महामनस्वी हो। अत: गोपेश्वर भूपाल ! तुम नन्दराज को जाति से अलग कर दो। वृषभानुवर बोले - नन्दराज का क्या दोष है, जिससे मैं उनको त्याग दूँ ? नन्दराज तो समस्त गोपों के प्रिय, अपनी जाति के मुकुट तथा मेरे भी परम प्रिय हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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