गर्ग संहिता
गोलोक खण्ड : अध्याय 4
श्रीब्रह्माजी ने पूछा- पुरुषोत्तम ! इन स्त्रियों ने कौन-सा पुण्य-कार्य किया है तथा इन्हें कौन-कौन-से वर मिल चुके हैं, जिनके फलस्वरूप ये व्रज में निवास करेंगी ? कारण, आपका वह स्थान तो योगियों के लिये भी दुर्लभ है। श्रीभगवान बोले- पूर्वकाल में श्रुतियों ने श्वेतद्वीप में जाकर वहाँ मेरे स्वरूपभूत भूमा (विराट पुरुष या परब्रह्म) का मधुर वाणी में स्तवन किया। तब सहस्र पाद विराट पुरुष प्रसन्न हो गये और बोले। श्रीहरिने कहा- श्रुतियों ! तुम्हें जो भी पाने की इच्छा हो, वह वर माँग लो। जिनके ऊपर मैं स्वयं प्रसन्न हो गया, उनके लिये कौन-सी वस्तु दुर्लभ है? श्रुतियाँ बोलीं- भगवन ! आप मन वाणी से नहीं जाने जा सकते; अत: हम आपको जानने में असमर्थ हैं। पुराणवेत्ता ज्ञानी पुरुष यहाँ जिसे केवल ‘आनन्दमात्र’ बताते हैं, अपने उसी रूप का हमें दर्शन कराइये। प्रभो ! यदि आप हमें वर देना चाहते हों तो यही दीजिये। श्रुतियों की ऐसी बात सुनकर भगवान ने उन्हें अपने दिव्य गोलोकधाम का दर्शन कराया, जो प्रकृति से परे हैं। वह लोक ज्ञानानन्दस्वरूप, अविनाशी तथा निर्विकार है। वहाँ ‘वृन्दावन’ नामक वन है, जो कामपूरक कल्पवृक्षों से सुशोभित है। मनोहर निकुंजों से सम्पन्न वह वृन्दावन सभी ऋतुओं में सुखदायी है। वहाँ सुन्दर झरनों और गुफाओं से सुशोभित ‘गोवर्धन’ नामक गिरि है। रत्न एवं धातुओं से भरा हुआ वह श्रीमान पर्वत सुन्दर पक्षियों से आवृत है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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