गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 18
स्वर्गलोक, सिद्ध, मुनि, यक्ष और मरूद्गणों के पालक तथा समस्त नरों, किंनरों और नागों के स्वामी भी निरंतर भक्तिभाव से जिनके चरणाविन्दों में प्रणिपात करके उत्कृष्ट लक्ष्मी एवं ऐश्वर्य को पाकर निश्चय ही उन्हें बलि (कर) समर्पित किया करते हैं, उनको तुम निर्धन कहती हो ? वत्सासुर, अघासुर, कालिय नाग, बकासुर, यमलार्जुन वृक्ष, तृणावर्त, शकटासुर और पूतना आदि का वध (सम्भवत: तुम्हारी दृष्टि में उनकी वीरता का परिचायक नहीं है! मेरा भी ऐसा ही मत है।) उन मुरारि के लिये क्या यश देने वाला हो सकता है, जो कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड समूहों के एक मात्र स्नष्टा और संहारक हैं ? उन पुरुषोत्तम कि लिये भक्त से बढ़कर कोई प्रिय हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता। शंकर, ब्रह्मा, लक्ष्मी तथा रोहिणीनन्दन बलराम जी भी उनके लिये भक्तों से अधिक प्रिय नहीं हैं। वे भक्ति से बद्धचित्त होकर भक्तों के पीछे-पीछे चलते हैं। अत: श्रीकृष्ण केवल सुशील ही नहीं, समस्त लोकों के सुजन-समुदाय के चूड़ामणि हैं। वे भक्तों के पीछे चलते हुए अपने रोम-रोम में स्थित लोकों को पवित्र करते रहते हैं। वे परमात्मा अपने भक्तजनों के प्रति सदा ही अभिरुचि सूचित करते रहते हैं। अत: अत्यंत भजन करने वालों को भगवान मुकुन्द मुक्ति तो अनायास दे देते हैं, किंतु उत्तम भक्तियोग कदापि नहीं देते; क्योंकि उन्हें भक्ति के बन्धन में बँधे रहना पड़ता है। गोपदेवी बोली- श्रीराधे ! तुम्हारी बुद्धि बृहस्पति का भी उपहास करती है और वाणी अपने प्रवचन-कौशल से वेदवाणी का अनुकरण करती है। किंतु देवि! तुम्हारे बुलाने से यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण सचमुच यहाँ आ जायँ और तुम्हारी बात का उत्तर दें, तब मैं मान लूँगी कि तुम्हारा कथन सच है। श्रीराधा बोलीं- शुभ्रु ! यदि परमेश्वर श्रीकृष्ण मेरे बुलाने से यहाँ आ जायँ, तब मैं तुम्हारे प्रति क्या करूँ, यह तुम्हीं बताओ। परंतु अपनी ओर से इतना ही कह सकती हूँ कि यदि मेरे स्मरण करने से वनमाली का शुभागमन नहीं हुआ तो मैं अपना सारा धन और यह भवन तुम्हें दे दूँगी। श्री नारद जी कहते हैं- राजन् ! तदनंतर श्रीराधा उठकर श्रीनन्दनन्दन को नमस्कार करके आसन पर बैठ गयीं और उनका ध्यान करने लगीं। उस समय उनके नेत्र ध्यानरत होने के कारण निश्चल हो गये थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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