गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 14
मिथिलेश्वर ! आश्विन शुक्ला दशमी को उन पक्षियों का दर्शन पवित्र एवं सम्पूर्ण मनोवांछित फलों का देने वाला माना गया है। रोष से भरे हुए गरुड़ ने पुन: कालिय को चोंच से पकड़ कर पृथ्वी पर पटक दिया और सहसा वे उसके शरीर को घसीटने लगे। तब भय से विह्वल हुआ कालिय गरुड़ की चोंच से छूट कर भागा। प्रचण्ड पराक्रमी पक्षिराज गरुड़ भी सहसा उसका पीछा करने लगे। सात द्वीपों, सात खण्डों और सात समुद्रों तक वह जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ उसने गरुड़ को पीछा करते देखा। वह नाग भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक और महर्लोक में क्रमश: जा पहुँचा और वहाँ से भागता हुआ जन लोक में पहुँचा गया। जहाँ जाता, वहीं गरुड़ भी पहुँच जाते। इसलिये वह पुन: नीचे-नीचे के लोकों में क्रमश: गया; किंतु श्रीकृष्ण (भगवान विष्णु) के भय से किसी ने उसकी रक्षा नहीं की। जब उसे कहीं भी शांति नहीं मिली, तब भय से व्याकुल कालिय देवाधिदेव शेष के चरणों के निकट गया और भगवान शेष को प्रणाम करके परिक्रमापूर्वक हाथ जोड़ विशाल पृष्ठ वाला कालिय दीन, भयातुर और कम्पित होकर बोला। कालिय ने कहा- भूमिभर्ता भुवनेश्वर ! भूमन ! भूमि-भारहारी प्रभो ! आपकी लीलाएँ अपार हैं, आप सर्वसमर्थ पूर्ण परात्पर पुराण पुरुष हैं; मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । नारद जी कहते हैं- कालिय को दीन और भयातुर देख फणीश्वरदेव जनार्दन ने मधुर वाणी से उसको प्रसन्न करते हुए कहा । शेष बोले- महामते कालिय ! मेरी उत्तम बात सुनो। इसमें संदेह नहीं कि संसार में कहीं भी तुम्हारी रक्षा नहीं होगी। (रक्षा का एक ही उपाय है; उसे बताता हूँ, सुनो) पूर्वकाल में सौभरि नाम से प्रसिद्ध एक सिद्ध मुनि थे। उन्होंने वृन्दावन में यमुना के जल में रहकर दस हजार वर्षों तक तपस्या की। उस जल में मीनराज का विहार देखकर उनके मन में भी घर बसाने की इच्छा हुई। तब उन महाबुद्धि महर्षि ने राजा मान्धाता की सौ पुत्रियों के साथ विवाह किया। श्रीहरि ने उन्हें परम ऐश्वर्य शालिनी वैष्णवी सम्पत्ति प्रदान की, जिसे देखकर राजा मान्धाता आश्चर्यचकित हो गये और उनका धनविषयक सारा अभिमान जाता रहा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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