गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 12
ताल के साथ पदविन्यास करने से श्रीकृष्ण ने लंबी साँस खींचते हुए महाकाय कालिय के बहुत से उज्ज्वल फनों को भग्न कर दिया। उसी समय भय से विह्वल हुई नाग पत्नियाँ आ पहुँचीं और भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में नमस्कार करके गदद वाणी द्वारा इस प्रकार स्तुति करने लगीं । नाग पत्नियाँ बोलीं-भगवन! आप परिपूर्णतम परमात्मा तथा संख्य ब्रह्माण्डों के अधिपति हैं। आप गोलोकनाथ श्रीकृष्णचन्द्र को हमारा बारंबार नमस्कार है। व्रज के अधीश्वर आप श्रीराधावल्लभ को नमस्कार है। नन्द के लाला एवं यशोदा नन्दन को नमस्कार है। परमदेव ! आप इस नाग की रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये। तीनों लोकों में आपके सिवा दूसरा कोई इसे शरण देने वाला नहीं है। आप स्वयं साक्षात परात्पर श्री हरि हैं और लीला से ही स्वच्छन्दतापूर्वक नाना प्रकार के श्रीविग्रहों का विस्तार करते हैं।[1] श्री नारद जी कहते हैं-अब तक कालियनाग का गर्व चूर्ण हो गया था। नाग पत्नियों द्वारा किये गये इस स्तवन के पश्चात् वह श्रीकृष्ण से बोला-‘भगवन ! पूर्णकाम परमेश्वर ! मेरी रक्षा कीजिये।’ ‘पाहि-पाहि’ कहता हुआ कालियनाग भगवान श्री हरि के सम्मुख आकर उनके चरणों में गिर पड़ा। तब उन जनार्दनदेव ने उससे कहा। श्रीभगवान बोले-तुम अपनी पत्नियों और सुह्यदों के साथ रमणक द्वीप में चले जाओ। तुम्हारे मस्तक पर मेरे चरणों के चिह्न बन गये हैं, इसलिये अब गरूड़ तुम्हें अपना आहार नहीं बनायेगा। नारद जी कहते हैं- राजन ! तब उस सर्प ने श्रीकृष्ण की पूजा और परिक्रमा करके, उन्हें प्रणाम करने के अनंतर, स्त्री-पुत्रों के साथ रमणक द्वीप को प्रस्थान किया। इधर ‘नन्दनन्दन जो कालिय नाग ने अपना ग्रास बना लिया है’- यह समाचार सुनकर नन्द आदि समस्त गोपगण वहाँ आ गये थे। श्रीकृष्ण को जल से निकलते देख उन सब लोगों की बड़ी प्रसन्नता हुई। अपने बेटे को छाती से लगाकर नन्द जी परमानन्द में निमग्न हो गये। यशोदा ने अपने खोये हुए पुत्र को पाकर उसके कल्याण की कामना से ब्राह्मणों को धन का दान किया। उस समय उनके स्तनों से स्नेहाधिक्य के कारण दूध झर रहा था। राजन! उस दिन रात में अधिक श्रम के कारण गोपांगनाओं और ग्वाल-बालों के साथ समस्त गोप यमुना के निकट उसी स्थान पर सो गये। निशीथकाल में बाँसों की रगड़ से प्रलयाग्नि के समान दावानल प्रकट हो गया, जो सब ओर से मानो गोपों को दग्ध करने के लिये उधर फैलता आ रहा था। उस समय मित्रकोटि के गोप बलराम-सहित श्रीकृष्ण की शरण में गये और भय से कातर हो दोनों हाथ जोड़कर बोले। गोपों ने कहा-शरणागतवत्सल महाबाहु कृष्ण! कृष्ण! प्रभो! वन के भीतर दावाग्नि के कष्ट में पड़े हुए स्वजनों को बचाओ ! बचाओ !! नारद जी कहते हैं- तब योगेश्वर देव माधव उनसे बोले- ‘डरो मत। अपनी-अपनी आँखें मूँद लो।’ यों कहकर वे सारा दावानल स्वयं ही पी गये। फिर-प्रात:काल विस्मित हुए गोपगणों तथा गौओं के साथ नन्दनन्दन शोभाशाली व्रजमण्डल में आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ नागपत्न्य ऊचु:-
नम: श्रीकृष्णचन्द्राय गोलोकपतये नम:। असंख्याण्डाधिपतये परिपूर्णतमाय ते ।।
श्रीराधापतये तुभ्यं व्रजाधीशाय ते नम:। नम: श्रीनन्दपुत्राय यशोदानन्दनाय ते ।।
पाहि पाहि परदेव पन्नगं त्वत्परं न शरणं जगत्त्रये। त्वं परात्परतरो हरि: स्वयं लीलया किल तनोषि विग्रहम् ।।
(गर्ग संहिता, वृन्दावन0 12। 18-20)
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