गर्ग संहिता
वृन्दावन खण्ड : अध्याय 4
नरेश्वर! एक दिन उनके बछड़ों के झुंड में कंस का भेजा हुआ वत्सासुर आकर मिल गया। श्रीकृष्ण को यह बात विदित हो गयी और वे उसके पास गये। वह दैत्य गोप-बालकों के बीच में सब ओर पूँछ उठाकर बार-बार दौड़ता हुआ दिखायी देता था। उसने अचानक आकर अपने पिछले पैरों से श्रीकृष्ण के कन्धों पर प्रहार किया। अन्य गोप-बालक तो भाग चले, किंतु श्रीकृष्ण ने उसके दोनों पकड़ लिये और उसे घुमाकर धरती पर पटक दिया। इसके बाद श्री हरि ने फिर उसे हाथों से उठाकर कपित्थ-वृक्ष पर दे मारा। फिर तो वह दैत्य तत्काल मर गया। उसके धक्के से महान कपित्थ-वृक्ष ने स्वयं गिर कर दूसरे-दूसरे वृक्षों को भी धराशायी कर दिया। यह एक अद्भुत सी बात हुई। समस्त ग्वाल बाल आश्चर्य से चकित हो कन्हैया को वहाँ साधु वाद देने लगे। देवता लोग आकाश में खड़े हो जय-जयकार करते हुए फूल बरसाने लगे। उस दैत्य की विशाल ज्योति श्रीकृष्ण में लीन हो गयी। बहुलाश्व ने पूछा- मुने ! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है। बताइये तो, इस वत्सासुर के रूप में पहले का कौन-सा पुण्यात्मा पुरुष प्रकट हो गया था, जो परिपूर्णतम परमात्मा श्रीकृष्ण में विलीन हुआ ? श्री नारद जी बोले- राजन ! मुर के एक पुत्र था, जो महादैत्य ‘प्रमील’ के नाम से विख्यात था। उसने देवताओं को भी युद्ध में जीत लिया था। एक दिन वह वसिष्ठ मुनि के आश्रम पर गया। वहाँ उसने मुनि की होम धेनु नन्दिनी को देखा। उसे पाने की इच्छा से वह ब्राह्मण का रूप धारण करके मुनि के पास गया और उस मनोहर गौ के लिये याचना करने लगा। महर्षि दिव्यदर्शी थे; अत: सब कुछ जानकर भी चुप रह गये, कुछ बोले नहीं। तब गौ ने स्वयं कहा। श्री नन्दिनी बोली- दुर्मते ! तू मुर का पुत्र दैत्य है, तो भी मुनियों की गौ का अपहरण करने के लिये ब्राह्मण बनकर आया है; अत: गाय का बछड़ा हो जा। श्री नारद जी कहते हैं- मोटे अक्षरराजन ! नन्दिनी के इतना कहते ही वह मुर पुत्र महान गोवत्स बन गया। तब उसने मुनिवर वसिष्ठ तथा उस गौ की परिक्रमा एवं प्रणाम करके कहा-‘मेरी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये’। गौ बोली- महादैत्य ! द्वापर के अंत में जब तू श्रीकृष्ण के बछड़ों में घुस जायगा, उस समय तेरी मुक्ति होगी। श्री नारद जी कहते हैं- उसी शाप और वरदान के कारण परिपूर्णतम पतित पावन साक्षात भगवान श्रीकृष्ण में दैत्य वत्सासुर विलीन हुआ। इसमें विस्मय की कोई बात नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रम संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |