गरजि-गरजि ब्रज घेरत आवैं। तरपि-तरपि चपला चमकावैं।।
नर-नारी सब देखत ठाढ़े। ये बादर परलय के काढ़े।।
दरदरात, घहरात प्रबल अति। गोपी-ग्वाल भए औरै गति।।
कहा होन अबहीं यह चाहत। जहँ तहँ लोग यहैं अवगाहत।।
खन भीतर, खन बाहिर आवत। गगन देखि धीरज बिसरावत।।
सूर स्याम यह करी पुजाई। तातैं सुरपति चढ़यौ रिसाई।।931।।