खेलत स्याम अपनैं रंग।
नंद-लाल निहारि सोभा, निरखि थकित अनंग।
चरन की छबि देखि डरप्यौ अरुन, गगन छपाइ।
जानु करभा की सबै छबि, निदरि, लई छड़ाइ।
जुगल जंघनि खंभ-रंभा, नाहिं समसरि ताहि।
कटि निरखि केहरि लजाने, रहे वन-घन चाहि।
हृदय हरि-नख अति बिराजत, छबि न बरनी जाइ।
मनौ बालक बारिधर नव, चंद दियौ दिखाइ।
मुक्ता-माल बिसाल उर पर, कछु कहौं उपमाइ।
मनौ तारा-गननि बेष्ठित गगन निसि रह्यौ छाइ।
अधर अरुन, अनूप नासा, निरखि जन-सुखदाइ।
मनौ सुक, फल बिंब कारन, लेन बैठ्यौ आइ।
कुटिल अलक बिना बपन के मनौ अलि-सिसु-जाल।
सूर प्रभु की ललित सोभा, निरखि रहीं ब्रज-बाल।।234।।