क्यौ मन मानत है इन बातनि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मलार


  
क्यौ मन मानत है इन बातनि।
पाए जानि सकल गुन मधुकर, वेइ साँवरै गातनि।।
प्रथम प्रेम निसिहू न तजत अब, सकुचत हौ जलजातनि।
नीरस जानि निकट नहि आवत, देखि पुराने पातनि।।
सुनियत कथा काग कोकिल की, कपट रंग की रातनि।
निसि दिन स्रम सेवा काराइ उड़ि, अत मिले पितु मातनि।।
बेनु बजाइ सुधाकर हरि मुख, बन बोली अधरातनि।
अति रति लोभ तजत नहिं इक छिन, पठै सकत नहि प्रातनि।।
बालि जीति जिन बलि बधन किए, लुब्धक की सो घातनि।
को पतियाइ सु धौ 'सूरज' कहि, संकरषन के भ्रातनि।।3549।।

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