को समुझावै मेरे नैननि हौं समूझाइ रही।
लाज न धरत फिरत पंछी ज्यौ करत न सीख कही।।
बिनु आदर बिनु भाव बिना फिरि जात तही।
वै बेधत सर ये सुख मानत बातै अधिक दही।।
इनके लियै जगत उपहाँसी करि जिय कठिन सही।
भौन गौन जल आनन कारन आनहिं बदत नही।।
लालच लागे रहत स्वान ज्यौ चितवत स्याम जहीं।
सुनहु ‘सूर’ सबहिनि की यह गति नैननि गुसा गहीं।। 24 ।।