श्रीकृष्णांक
आदर्श सखा श्रीकृष्ण
मित्र के विषय में नीतिशास्त्र वचन है- मित्रं प्रीतिरसायनं नयनयोरानन्दनं चेतस: अर्थात ‘प्रेम करने वाला, नेत्र तथा हृदय को प्रसन्न करने वाला, सुख और दु:ख में साथ देने वाला मित्र दुर्लभ है। सम्पत्ति में धन की लिप्सा से साथ रहने वाले तो सब जगह मिल जाते हैं। सच्चे मित्र की ससौटी तो विपत्ति है’। उपर्युक्त श्लोक से विदित होता है कि मित्र में होने योग्य गुण ये हैं- प्रेम-रस, नेत्र तथा मन को प्रसन्न करना और सुख-दु:ख में साथ देना। श्रीकृष्ण में इन सभी बातों का समानाधिकरण्य है। सुदामोपाख्यान में श्रीकृष्ण की विपन्न सुहृदवर्ग के कष्ट निवारण में दत्तचित्तता तो स्पष्ट सिद्ध है। वे कष्ट निवारण क्यों न करें ? मित्र के दु:ख को अपना दु:ख समझना आदर्श मित्र का ही कर्तव्य है। कमलनयन भगवान तो सुदामा की आर्त्तदशा को देखकर स्वयं सजलनयन हो गये। सख्यु: प्रियस्य विप्रर्षें रंगसंगतिनिर्वत: । दूसरा गुण बताया गया ‘मित्र के नेत्र तथा मन को प्रसन्न रखना’ सो भगवान तो त्रिलोकसुन्दर हैं ‘त्रैलोक्यलक्ष्म्येकपदं वपुर्दधमत्’। उनके रुप को देखकर मित्रों का तो कहना ही क्या, शत्रुओं का भी मन मोहित हो जाता था। उनके रुप के वर्णन में विशद वचन है ‘मनोनयनवर्धनम्’। अहो, भगवान सुदामा के हाथों को अपने हाथों में लेकर मंद-स्मितपूर्वक वार्तालाप करें, इससे अधिक मित्र को और क्या चाहिये- कथयाञ्चक्रतुर्गाथा: पूर्वा गुरुकुले सतो: । ब्रह्मण्यो ब्राह्मणं कृष्णो भगवान्प्रहसंप्रियम्। नीति-वचन के अनुसार मित्र का प्रथम गुण है प्रेमरस। इस गुण की तो श्रीकृष्ण खान हैं। श्रुति ने तो उनका रसालय, रसपूर्ण, रसनिधि आदि न कहकर ‘रस’ ही कहा है। ‘रसो वै स:’ । ऐसे नित्य, शाश्वत, अलौकिक और आदर्श सखा से कौन मित्रता न करना चाहेगा ? हे भगवन ! आप अपने श्रीचरणें में मुझे उतनी प्रीति दीजिये, जितनी लौकिक मि7 अपने प्रियतम मित्र साथ रखता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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