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जहाँ कहीं हमें मंगल दिखायी देता है, जहाँ कहीं हम मधुर, सच्ची और पवित्र वाणी का मनोहर स्वर सुनते हैं, जहाँ कहीं हम व्यक्तिगत एवं जातीय तथा समष्टिगत स्मृति के रूप में कीर्ति के बादलों को देखते हैं- जिनसे हमें अतीत युगों के लुप्त मानवीय अनुभवों का स्मरण होता है, जहाँ कहीं हम ज्ञान के प्रकाश को गाढ़ अन्धकार के आवरण का भेदन करते हुए और प्रकृति के नित्य नवीन रहस्यों को उद्घाटित करते हुए पाते हैं, जहाँ कहीं हम आत्मज्ञान, आत्मसम्मान और आत्मसंयम की शक्तियों के सुन्दर पुष्पों और फलों को देखते हैं, जहाँ कहीं हम दया और क्षमा के दैवी गुण को पाते हैं- जो दो प्रकार से[1] धन्य कहा गया है और जो आकाश से गिरने वाली धीमी-धीमी वर्षा की भाँति बड़ा सुखदायक है, वहाँ हमें भगवान कई अति दिव्य विभूतियों की झाँकी मिलती है।
जिस गार्हस्थ-जीवन में हमें ये गुण नहीं मिलते, जहाँ हमें ब्रह्मचर्य, पवित्रता और आत्म संयम के बदले केवल काम-वासनाओं की तृप्ति दृष्टिगोचर होती है और जहाँ स्त्रियों के माधुर्य को इन्द्रियजन्य सुख के साधन के रूप में महत्त्व दिया जाता है, वहाँ हमें नरक का ही द्वार देखने को मिलता है, वैकुण्ठ का नहीं।’ जिनके मन और शरीर जवानी से ही ब्रह्मचर्य और योग में सुधे हुए हैं, जो स्त्री-पुरुष यह जानते हैं कि तप और भोगों का सर्वथा विरोध ही नहीं है, उनका भी समन्वय है। जो लोग काम-शक्ति को आत्म-बल के रूप में परिणत करना जानते हैं उनके लिये कृत्रिम सन्तान- निग्रह की अपेक्षा प्राकृतिक संयम अधिक सहज होगा, जैसे कि आर्य ऋषियों ने बतलाया है। भोजन की पवित्रता, इन्द्रिय-भोगों की पवित्रता और विचारों की पवित्रता यही संसार में स्त्रियों को सर्वोच्च आदर्श पर पहुँचाने का मार्ग है। भगवान स्त्रियाँ अपना और अपने पतियों का उद्धार कर सकती हैं और फिर ये दोनों मिलकर संसार को उद्धार के उस मार्ग पर आरूढ़ कर सकते हैं, जिससे अखिल विश्वे को भगवान की कृपा की प्राप्ति हो।
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