श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण
तत्र पूज्यपदार्थोक्तिपरिभाषासमंवित:। अर्थात भगवच्छब्द के दो अर्थ हैं, एक योगार्थ और दूसरा पारिभाषिकार्थ। जब भगवान शब्द का प्रयोग परमात्मा में हो तो वह मुख्य प्रयोग है, क्योंकि उसमें दोनों ही अर्थ घटित होते हैं, और जब अन्यत्र किसी व्यक्ति विशेष में प्रयोग हो, जैसे कि ‘भगवान पतन्जलि’ ‘भगवान व्यास’ इत्यादि, तो वह सब औपचारिक हैं, क्योंकि उन व्यक्तियों में षाड्गुण्यपूर्ति नहीं है। 'प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय समभवाम्यात्ममायया' अर्थात निज ईश्वरीय स्वभाव के साथ ही मै अवतार लेता हूँ। यहाँ ‘प्रकृति’ शब्द स्वभाव पर है। तब परमात्मा के मूल स्वरूप और अवतारों में गुणपूर्ति के विषय में कोई भेद नहीं, किन्तु गुण-प्रकाशन में भेद है। इसी भेद को लेकर अंशावतार और पूर्णावतार व्यवहार प्रवृत्त होता है। अर्थात परमात्मा किसी अवतार में किसी गुण का प्रकाशन करते हैं और किसी में किसी का। आवश्यकतानुसार न्यूनाधिक गुणों का प्रकाशन अवतारों में हुआ करता है। सभी अवतारों में सभी गुणों का सद्भाव होने पर भी कार्यवशात् किसी गुण का प्रकाशन होता है और शेष गुण अनुन्मिषित रहते हैं। जैसे कि शास्त्रों में परमात्मा के वासुदेव, संकर्षणादि व्यूहचतुष्टय के विषय में गुणोन्मेषानुन्मेष बताया गया है, वैसे ही अन्य अवतारों के विषय में भी समझना चाहिये। तत्र ज्ञानबलद्वन्द्वाद्रूपं सांकर्षणं विदु:। अर्थात संकर्षण में ज्ञान और बल का उन्मेष रहता है। प्रद्युम्न में ऐश्वर्य और वीर्य का उन्मेष रहता है, और अनिरुद्ध में शक्ति और तेज का उन्मेष रहता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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