श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण
श्रीभगवान ने जो गीता में कहा है कि ʻबहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तब चार्जुन।ʼ[1] उसका तात्पर्य ऐसे ही महान जीवन्मुक्त महात्माओं के जन्म से है जो श्रीभगवान में संयुक्त होकर श्रीभगवान को लोकहित के लिये अवतार द्वारा संसार में प्रकट कराते हैं, ऐसे महात्माओं के परोपकार गुणों का वर्णन ʻविवेकचूडामणिʼ में यों है— शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो, शान्ति स्वभावयुक्त महात्मा वसन्तऋतु के सदृश केवल संसार का हित करते हैं। वे निस्स्वार्थबुद्धि से कठिन संसार-सागर से लोगों को तारते हुए आप भी तर जाते हैं। जैसे यह चन्द्रमा सूर्य की कर्कश प्रभा से सन्तप्त पृथ्वी को तृप्त किया करता है; वैसे ही दूसरे के श्रम (कष्ट)- का नाश करने में तत्परता ही महात्माओं का स्वयं सिद्ध स्वभाव है। कोई-कोई वृन्दावन के श्रीकृष्ण और द्वारिका के श्रीकृष्ण को अलग-अलग मानते हैं, किन्तु यथार्थ में श्रीकृष्ण दो नहीं, एक ही थे। जिन श्रीकृष्ण ने वृन्दावन में लीला की,उन्हीं श्रीकृष्ण ने पीछे द्वारिका में जाकर वास किया। केशिदैत्य का वध व्रज में हुआ था। पर श्रीमद्गवगीता[2], श्रीविष्णुसहस्त्रनाम[3] तथा भीष्मस्तवराज[4] आदि में ʻकेशिनिषूदनʼ और ʻकेशिहाʼ शब्द आये हैं। महाभारत में आया है कि श्रीनारदजी ने श्रीभगवान से कहा कि तैसे आपने कंस का संहार किया वैसे ही आप दुष्ट जनों का भी नाश कीजिये। और भी अनेक प्रमाण हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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