श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चरित्र
सर्वत्र आत्मारूप ईश्वर को देखने के प्रभाव से ब्रह्मविद्या उत्पन्न होती है। ब्रह्मविद्या उत्पन्न होने पर सब ब्रह्ममय हो जाता है। ब्रह्ममय दृष्टि वाला समस्त निश्रेष्ट हो जाना चाहिये। हे उद्धव ! सब प्राणियों में मुझे देखकर मन, वाणी और काया के कर्मों से मेरी आराधना करना ही मेरे मत में मुझे प्राप्त करने का सबसे सहज और श्रेष्ठ उपाय है, इससे सहज और श्रेष्ठ अन्य कोई उपाय नहीं है ! हे उद्धव ! आरम्भ करने के उपरान्त इस धर्म का किसी प्रकार से भी ध्वस नहीं होता, यह मैंने स्वयं निश्चित किया है। सत्तम ! भय-शोकादि के कारण भागने और चिल्लाने के समान तुच्छ और व्यर्थ आयास भी यदि फल की कामना रहित मुझे अर्पण किये जाते हैं तो वह भी अक्षय धर्मरूप ही होते हैं, असत् और नश्वर देह के द्वारा इसी जन्म मे मुझ सत्य और अवनिाशी को प्राप्त कर लेना ही चतुरों का चातुर्य है। संक्षेप से और विस्तार से समग्न ब्रह्मभाव का संग्रह मैंने तुमसे कह दिया, यह देवताओं के लिये भी दुर्गम है। इसको जानकर पुरुष संशय शून्य और मुक्त हो जाता है इसमें किंचित् भी सन्देह नहीं है। मेरे-तुम्हारे इस संवाद को जो कोई विचारपूर्वक पढ़ेगा वह भी सत्य परब्रह्म को प्राप्त होगा। जो लोग इस ज्ञान को स्पष्ट समझाकर सुनावेंगे, मैं उन ब्रह्मज्ञान का उपदेश करने वालों को प्रसन्नतापूर्वक आत्म समर्पण कर दूँगा। जो कोई इस परम पवित्र ज्ञानदीप को नित्य- प्रति बढे़गा वह इस दीपक के प्रकाश द्वारा मुझे अवश्य देख लेगा। जो कोई एकाग्रमन से इसे सुनेगा वह कर्मबन्धन में नहीं पड़ेगा। हे उद्धव ! दाम्भिक, नास्तिक, वंचक, सुनने की इच्छा न रखने वाले और मेरे भक्ति से विमुख दुष्ट घमण्डी को इस ज्ञान का उपदेश कभी मत करना। उक्त दोषों से रहित ब्रह्मभक्त, सब प्राणियों के हितचिन्तक, प्रिय-पवित्र-साधु, भक्ति-श्रद्धा-सम्पन्न शूद्र और स्त्रियों कोइ इस ज्ञान का उपदेश अवश्य करना। इसके जाने लेने पर जिज्ञासु को अन्य कुछ जानना शेष नहीं रहता। स्वादिष्ट सुधा पी लेने पर अन्य कुछ पीना शेष नहीं रह जाता ! हे उद्धव ! तुम-जैसे अनन्य भक्तों के लिये धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-नामक चारों पदार्थ और आणिमादि ऐश्वर्य सब कुछ मैं ही हूँ। जब मनुष्य सब कर्मों को छोड़कर मुझमें ही आत्मा को अर्पित कर देता है और मेरे आराधन की इच्छा से ही सब कुछ करता है, तब वह जीवन्मुक्त होकर मेरे ही सदृश ऐश्वर्य का अधिकारी हो जाता है। हे मित्र उद्धव ! क्या तुमने यह ब्रह्मविषयक ज्ञान भली-भाँति समझ लिया ? और क्या तुम्हारा शोक-मोह निवृत्त हो गया ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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