श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चरित्र
विवेक पुरुष यद्यपि बहिर्मुख होकर इन्द्रियों के विषयों को देखता है, तो भी आत्मा के सिवा अन्य पदार्थों का सत्य नहीं मानता, किन्तु जैसे नींद से जगा हुआ मनुष्य स्वप्न के पदार्थों को मिथ्या जानता है, इसी प्रकार वह जगत् के समस्त पदार्थों को मिथ्या जानता है। हे उद्धव ! श्रद्धापूर्वक जिनका अनुष्ठान करने से मनुष्य दुर्जय मृत्यु को जीत लेता है, उन अपने मंगलमय धर्मों मैं तुमझे कहता हूँ। बुद्धि और मन की मुझमें स्थापित करने से जिसका आत्मा और मन मेरे धर्मों में निरत हो गया हे वह व्यक्ति धीरे-धीरे मेरा स्मरण करता हुआ मेरे उदेश्य ही सब कर्म करे, मेरे भक्त-साधुजन जहाँ रहते हों, उन पवित्र स्थानों में रहकर मेरे अनन्य भक्तों के आचरणों का अनुकरण करे, पृथक् सत्र द्वारा अथवा प्रचलित प्रथा द्वारा पर्व-यात्रा आदि में महान उत्सव करावे, निर्मलचित्त होकर भीतर-बाहर आकाश के समान-सर्वत्र व्यापक आत्मारूप मुझको सब प्राणियों में और अपने में अवस्थित देखे। हे अतिप्राज्ञ ! इस प्रकार केवल ज्ञान के आश्रित होकर जो सब प्राणियों को मेरा रूप मानकर पूजता है और सबको समान दृष्टि से देखता है वही पूर्ण पण्डित है। जो पुरुष निरन्तर बारम्बार सब प्राणियों में मेरी भावना करता है उसके चित्त के राग-द्वेषादि दोष शीघ्र ही दूर हो जाते हैं। अपने देह में श्रेष्ठ-बुद्धि को त्यागकर समबुद्धि से लज्जारहित होकर कुत्ते, चाण्डाल बैल, गदहे तक को पृथ्वी पर सिर झुकाकर प्रणाम करना चाहिये। जब तक सब प्राणियों में मेरी भावना उत्पन्न नहीं हो तब तक उक्त प्रकार से मन, वाणी और शारीरिक कर्मद्वारा मेरी उपासना करनी चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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