श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण
ऐसे साधुपरित्राणार्थ अवतारों में श्रीकृष्णावतार मुख्य है। अतः उनके विषय में कहा गया है कि- 'कृष्णस्तु भगवांस्वयम्' अर्थात् अन्य अवतार तो परमात्मा के अंशावतार हैं, श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान ही हैं। यानी पूर्णावतार हैं। भारत वर्ष में यह बात सुप्रसिद्ध है कि अन्यान्य अशावतार- अपूर्णवतार हैं, श्रीकृष्ण पूर्णावतार हैं। अवतारों में अंशावतार और पूर्णावतार का भेद किस प्रकार घटित हो सकता है, इस पर बहुत कम लोगों ने विचार किया है। अखण्डैरस निरवयव परमात्मा के अंश कैसे हो सकते हैं ? अंश तो उस वस्तु का होता है जो अनेक घटकावयव समुदाय रूप हो। 'पादस्तुरीयभागस्यादंशभागौ तु वण्टके।' अमरकोष के इस श्लोक मे ‘अंश’ शब्द भाग- शब्द के पर्याय रूप से कहा गया है। दशांश, षोडशांश आदि शब्द सुप्रसिद्ध हैं। तब हमें यह विचारना चाहिये कि उस निरंश निरवयव अखण्ड परमात्मा के अंश कहाँ से आये, ओर अंशावतार, पूर्णावतार व्यवहार का समन्वय कैसे हो ? ‘कृष्णस्तु भगवान्स्वयम्’ के पूर्व ‘एते चांशकलाः प्रोक्ताः’- यह पाद है, उसमें ‘अंश’ शब्द आया है। यह अंश शब्द आया है। यह अंश ईश्वर स्वरूप के भागों को लेकर नहीं, किन्तु उनके गुणों के भागों को लेकर है, ऐसा मानने से कथाचित् समाधान हो सकता है। भगवान शब्द ‘भगोऽस्यास्तीति’ इस प्रकार बनता है, ‘भग’ शब्द का अर्थ है ‘ज्ञान-शक्त्यादि षाड्गुण्य’।ज्ञानशक्तिबलैश्वर्यवीर्यतेजांस्यशेषत:। विष्णुपुराण के इस वचन के अनुसार ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज ये छः गुण जिनमें अशेषतः- पूर्णतया हों, उन्हें भगवान कहा जाता है। इन षड्गुणों से परिपूर्ण परमात्मा को छोड़कर दूसरा कोई नहीं है। इसलिये अन्यत्र कहीं ‘भगवान’ शब्द का प्रयोग किया जाय तो वह गौण है। यह बात भी विष्णुपुराण में ही बतायी गयी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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