श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण-चरित्र
स्वयं शोभा ही मानो पूर्णरूप से मूर्तिमान् होकर करोड़ों चन्द्रमाओं की शोभा को भी लज्जित कर रही थी। प्रिया-प्रीतमकी मधुर छवि को देखकर ब्रह्मा, शिवादि देवताओं के बाह्रृाज्ञानशून्य ही जाने में तो बात ही कौन-सी है, जबकि प्रिया-प्रीतम स्वयं ही परस्पर अपने रूप को देखकर बेसुध हो गये थे। एक हैं या दो हैं, भिन्न हैं या अभिन्न हैं, क्या हैं, कौन हैं, कहाँ हैं, इत्यादि कुछ भी खबर नहीं रह गयी थी ! मन-वाणी से परे जो थे सो ही थे ! हे विदुरजी ! भगवान की इस प्रकार की विचित्र लीलाएँ भगवच्चरण-सेवकों को आनन्द देनेवाली और भगवच्चरणविमुख मनुष्यों को मोहित करने वाली हैं। भगवान ने अधिक अवस्था होने पर शोभायुक्त श्रेवतवर्ण वृषमण्डली पूर्ण गौओंको चराते हुए गोपगणसहित बाँसुरी बाजते हुए अरण्य में रमण किया। कंस राजा ने उनके मारने के लिये अनेक मायावी राक्षस भेजे। उन सबको, जैसे बालक खिलौनों को पटककर अनायास ही तोड़ डालता है, वैसे ही भगवान ने लीला से मार डाला ! विष मिला हुआ जल पीने से मरे हुए ग्वाल और गौओं को भगवान ने जीवित कर दिया, कालीयनाग को वश करके श्रीयमुनाजीमें से निकाल दिया और जल को पीने योग्य शुद्ध बना दिया। नन्दजी ने बहुत व्यय करके इन्द्र यज्ञ करने का विचार किया, तब इन्द्र का यज्ञ उठाकर भगवान ने उसी सामग्री से गिरिगोवर्धन का पूजन कराया। यज्ञ नष्ट करने के लिये मूसलधार वर्षा की, तब भगवान ने लीलापूर्वक छत्ते की तरह गोवर्धन को बाएँ हाथ से उठा लिया और सबकी रक्षा करके इन्द्र का दर्प चूर्ण कर दिया। फिर शरद्-ऋतु की निर्मल रात्रि में व्रजबालाओं को अलंकृत करके रास रचा ! हे भद्र ! उपर्युक्त चरित्र भगवान ने कुमार-अवस्था में किये, पश्चात पिता-माता का उद्धार करने की इच्छा से वे श्रीबलदेवजी सहित मथुरापुरी मे आये और रंगभूमि में बडे़-बड़े मल्लों को पछाड़कर राजमंच पर से नीचे कंस को घसीटकर मार डाला। भगवान ने सान्दीपनि नामक गुरु से एक बार ही सुनकर सांगोपांग चौदह विद्या और समस्त वेद-शास्त्र पढ़ डाले और गुरु-दक्षिणा में गुरु के मरे हुए पुत्र को यमपुरी से ला दिया और पंजन दैत्य को उसका पेट फाड़कर मार डाला। तदनन्तर रूक्मिणी के रूप पर मोहित होकर अनेक राजा शिशुपाल का पक्ष लेकर रूक्मी के बुलाये हुए विवाह करने के लिये आये थे, उन सब शत्रुओं के सिर पर पैर रखकर उनके सामने ही गान्धर्व-विवाह करके, जैसे गरूड़जी देवताओं को जीतकर अमृत ले आये थे, वैसे ही अनन्य भक्त स्वरूपिणी रूक्मिणीजी ले आये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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