श्रीकृष्णांक
श्याम की वंशी
विश्वाच्छित समग्र अमरजीवन में अनुभूतपूर्व इस मधुर स्वर के आस्वादन से अपूर्व विस्यम रस का आविर्भाव होने के कारण वे निस्तब्ध हो गये। फिर वह वंशी का स्वर और भी ऊपर उठा और क्रमश: तप:, मह: और जन: आदि लोकों को पारकर उन सबके ऊपर के सत्यलोक में जा पहुँचा। वहाँ लोक पितामह चतुरानन की सभामें सनक, सनातन-प्रभृति ब्रह्ममुखोच्चारित श्रुतिगान की रसास्वादन में तन्मय हो श्रुतिवेद्य सच्चिदानन्दघन परब्रह्म की अनुभूतिमय महासमाधि में निमग्न हो रहे थे। ठीक उसी समय वंशी के स्वर ने उनके कर्णरन्ध्रों के द्वारा अन्तर में प्रवेश करके उनके हृदय-राज्य पर आक्रमण किया, जिससे तत्काल ही उनकी वह निर्गुण ब्रह्म की समाधि भंग हो गयी, वे व्याकुल हो उठे और चतुरानन के भी चारों मुख बन्द हो गये। इस प्रकार समग्र ऊर्ध्वलोक पर विजय प्राप्त कर वह संगीत-स्वर नीचे पाताल की ओर चला। पाताल में राजा बलि उसे सुनकर चंचल हो उठे। तदनन्तर वह वंशी-ध्वनि सप्तपाल भेदकर समस्त लोक-समूहों को धारण करने वाले अनन्तदेव के कानों में प्रविष्ट हुई, जिससे उनका स्थैर्य भंग हो गया। सहस्त्रफण एक ही साथ प्रकम्पित हो उठे। अखिल ब्रह्माण्ड काँप उठा। पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण समस्त दिशाओं को प्लावित करते-करते वंशी की वह संगीत-स्वर-लहरी और भी बढ़ने लगी—और भी प्रबल होन लगी, अखिल ब्रह्मण्ड उससे भर गया, परन्तु वह उसके लिये पर्याप्त नहीं हुआ, तब बडे़ ही वेग से ब्रह्माण्ड-कटाह को भेदकर वह किसी अनन्त, असीम शून्य में समा गयी, इस बात का निर्णय मनुष्य की बुद्धि नहीं कर सकती। समस्त स्थावर-जंगम के भावों को बदल देनेवाली यह श्याम सुन्दर के विश्वप्रेम की आह्मनमयी वंशी-ध्वनि कामना का गान नहीं है, यह सुप्त वासना का उदाम विलास नहीं है, यह उस प्रेममय परमपुरुष की स्वरूपभूता ह्रादिनी शक्ति की सारवृत्ति की प्रथम व्यंजना है। श्रीभगवान की रासलीला की यह प्राथमिक अभिव्यक्ति है। सारी रासलीला का यह मूल सूत्र है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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