श्रीकृष्णांक
श्याम की वंशी
ता वार्यमाणा: पतिभि: पितृभिर्भ्रातृबन्धुभि:। सारे विषयी प्राणियों के लिये जो रात्रि है, संयमी उसी में जगते हैं और जिस अवस्था में स्थित होकर विषयी जीव अपने को जागृत समझते हैं, मननशील संयमी के लिये वही रात्रि है। जिस वंशी-स्वर के केवल एक बार कर्णछिद्रों के द्वारा हृदय के मर्मस्थल में प्रवेश करते ही मनुष्य स्वजन, प्रियजन, संसार और आत्मातक को भूल जाता है, उस वंशी के स्वरूप को और उसके संगीत-स्वर का वर्णन उसी वंशी का गान सुनने के लिये सदा अन्मना रहने वाले प्रेमिक भक्तों ने किस प्रकार किया है, अब उसी को देखिये— ध्यानं बलात्परमहंसकुलस्य भिन्दन् ʻजय हो कंस-निषूदन श्रीहरि की वंशी-ध्वनि की ! यह ध्वनि सनक, सनातन, सनन्दन, सनत्कुमार- प्रभृति परमहंसकुल के निर्गुण निरूपाधि अद्वैत ब्रह्मविषयक ध्यान को भंग कर डालती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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