श्रीकृष्णांक
साक्षात परब्रह्म का आविर्भाव
गीता चतुर्थ अध्याय के 6 ठे ʻअजोऽपिʼ श्लोक में श्रीपुरुषोत्तम ने अपने पूर्ण आविर्भाव का निरूपण किया है। मैं अजन्मा हूँ अविकारात्मा हूँ और सब सत्ताधारियों का ईश्वर हूँ तो भी अपने स्वभाव को स्वीकार करके तथा अपनी निजमाया (योगमाया—आधिदैविकी माया)-को साथ लेकर ʻसंभवामिʼ उत्तम रीति से पैदा होता हूँ। यह श्लोक का अक्षरार्थ है। यहाँ ʻआत्ममाययाʼ इतना पद देकर अपने सब शंकाओं को दूर कर दिया है। श्लोक में भगवान ने ʻअहम्ʼ अपने अविर्भाव के ʻअज:ʼ, ʻअव्ययात्माʼ और ʻईश्वर:ʼ तीन विशेषण दिये हैं। यह तीनों विशेषण परात्पर ब्रह्म को ही दिये जा सकते हैं, मनुष्य को नहीं। यह तो स्पष्ट ही हे, अतएव यह भी स्पष्ट ही है कि श्रीकृष्ण स्वयं साक्षात पुरुषोत्तम हैं। किन्तु एक दूसरी बात और भी है, ʻअज:ʼ आदि तीनों विशेषण सम्भव (पैदा होने) के विरुद्ध हैं। जो अजन्मा है, जो अविकार है और जो ईश्वर है वह पैदा कैसे और क्यों हो सकता है? अजत्व और भव, अविकारत्व और जन्म, ईश्वरत्व और पैदा होना- ये सब परस्पर में विरुद्ध हैं। किन्तु ʻअणोरणीयान्महतो महीयान्ʼ ʻअजायमानो बहुधा विजायतेʼ इत्यादि श्रुतियों में साक्षात्पर ब्रह्म का विरुद्ध-धर्माश्रय रहना यह खास लक्षण कहा है और वह विरुद्ध-धर्माधार होना यहाँ ʻअजोऽपि सन्ʼ आदि पदों से कहा गया है। इसलिये श्लोक के पूर्वार्द्ध और क्रिया से यह भी स्पष्ट हो रहा है कि श्रीकृष्ण अपने-आपको विरुद्ध- धर्माधार कहते हुए साक्षात्- परब्रह्म का आविर्भाव कह रहे हैं। ʻप्रकृतिं स्वामधिषठाय संभववामि।ʼ यहाँ प्रकृति- शब्द के दो अर्थ होते हैं- रूढ़ और यौगिक। रूढ़-अर्थ स्वभाव है और यौगिक अर्थ है ʻप्रकृष्टा कृति: प्रकृति: करणाकरणान्यथाकरणʼ (करना न करना ओर अन्य तरह से कर देना) अर्थात् अदभूत कर्मत्व। श्रीकृष्ण साक्षात्परब्रह्म का आविर्भाव है, इसलिये यहाँ प्रकृति- शब्द के रूढ़ और यौगिक दोनों अर्थ लेने उचित हैं। वे दोनों अर्थ श्रीकृष्ण में समन्वित हैं। ʻस्व: स्वकीयो भाव: सत्ता धर्मान् सामर्थ्य चेति यावत्ʼ अर्थात् अपने परब्रह्मत्व को छिपाये रहने पर भी अगत्या प्रकट हो जाने वाले ब्रह्मधर्म और ब्रह्म सामर्थ्य को स्वीकार करके मैं उत्तम रीति से प्रकट होता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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