श्रीकृष्णांक
साक्षात परब्रह्म का आविर्भाव
इस प्रकार से परब्रह्म के लीलावतार, पुरुषावतार, अंशावतार, आवेशावतार और अर्चावतार अनेक हें किन्तु सब में प्रवृत्ति-निमित्त उतरना ही है, इसलिये सब अवतार ही कहे जाते हैं। भगवान सर्वव्याप्त है, वह व्यापक पुरुषोत्तम ही जगदुद्धारार्थ और विशेष-लीला-करणार्थ जब शुद्ध सत्व को आधार बनाकर अपनी इच्छित भूमि का आवरण हटाकर लोकदृष्टि में आ जाय अर्थात लोक में प्रकट हो जाय उसे ही परब्रह्म का उतरना या अवतार कहते हैं। यहाँ तक हम अवतार के विषय में विवेचना कर चुके। अब श्रीकृष्णावतार जो विशेष अवतार है उसकी मीमांसा करते हैं। स्वयं व्यापक पुरुषोत्तम ही जब सर्वोद्धारार्थ और विशेष लीलाकरणार्थ सत्वादि किसी पदार्थ को आधार न बनाकर अपने सब धर्म और शक्तियों को लेकर इच्छित भूमि का आवरण हटाकर माया सहित श्रीकृष्ण रूप और नाम से लोक में प्रकाशित हो, तब वह श्रीकृष्णावतार कहलाता है। अग्निन में खूब तपाकर अग्निरूप किया हुआ लोहे का गोला भी अग्नि है, सूर्य भी अग्नि है और निकलती हुई अग्निन की ज्वाला भी अग्नि है किन्तु एक वह भी अग्नि है जो सर्वत्र विश्व में व्याप्त है और सबका धारण-पोषण करते रहते भी परब्रह्म पुरुषोत्तम है, सूर्य की तरह भगवान के अवतार हैं, तपे हुए लोहे के गोले की तरह आवेशावतार हैं और निकलती हुई ज्वाला की तरह श्रीकृष्णावतार हैं और श्रीकृष्णावतार को हम श्रीपुरुषोत्तम का आविर्भाव कहते हैं। जैसे व्यापक अग्निन का ही आविर्भाव जाज्वल्यमान ज्वाला है उसी प्रकार सर्वशक्ति सहित श्रीपुरुषोत्तम का आविर्भाव ही श्रीकृष्णावतार है। जिस प्रकार सर्वत्र व्याप्त अग्नि ही पूर्वोक्त सब अग्नियों का मूल है और सब पदार्थों का गुप्त रीति से धारण-पोषण भी वही करता है तथापि उस अग्नि से प्रत्यक्ष रीति से लोक में ताप और प्रकाश पहुँचाने का कार्य नहीं सकता। इसी प्रकार से परब्रह्म पुरुषोत्तम के सर्वत्र व्याप्त रहते और गुप्तरीति से सर्वका धारण-पोषण करते रहने पर भी उससे लोक का उद्धार और अन्य कार्य नहीं करता। अग्निन के सर्वत्र व्याप्त रहते भी जैसे लोगों को सूर्य की, लोहे के गोले की, आग की तथा अग्नि-ज्वाला की अपेक्षा रहती ही है इसी तरह श्रीपुरुषोत्तम के सर्वत्र व्याप्त रहते भी उसके ही अवतार, आवेश और आविर्भाव की आवश्यकता लोक में रहती ही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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