श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण
इन कवि कल्पनाओं की असमंजस उड़ान से श्रीकृष्ण-चरित की ऐतिहासिक घटनाओं पर तो कुछ प्रभाव पड़ता नहीं, परन्तु इतना पता अवश्य चलता है कि उक्त पद्य लिखे जाने के समय सामाजिक दशा कहाँ तक गिर गयी थी और उसका प्रभाव उस लेखक के हृदय पर भी कितना गहरा पड़ा था, जिसने उन बातों बिना किसी लज्जा या संकोच के श्रीकृष्णचरित पर भी लाद दिया। यह समय बौद्धकाल के बाद का है। जिन श्रीकृष्ण के चरित का प्रभाव अमरसिंह- जैसे कट्टर बौद्ध के ऊपर उस रूप में पड़ा था, उसी के ऊपर इस समय के कवियों की कृति ने वैसी ही छाया डाली जैसी कभी-कभी पूर्णिमा के दिन पृथ्वी चन्द्रमा पर डाला करती है। इसके आगे चलकर तो और भी ʻबेड़ा ग़रकʼ हुआ। उक्त समय के उत्तराधिकारी हिन्दी-कवियों तो श्रीकृष्ण चरित्र में ʻनायिकाभेदʼ के सिवा और कुछ दीखा ही नहीं। ये लोग केवल ʻधोबिन लीलाʼ और ʻमनिहारिन लीलाʼ में ही मस्त रहने लगे। गीता के प्रवक्ता भगवान श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में ऐसी-ऐसी कुचैली कल्पनाएँ देखकर किसे दु:ख न होगा, परन्तु समय के प्रवाह ने यह सब करा दिया। हमारा तात्पर्य उक्त कवियों पर आक्रमण करना या उनकी नीयत पर सन्देह करना हर्गिज, नहीं हैं, हम इन सबको परम पवित्र, परम पूज्य समझते हैं और इनमें से अनेकों की तो चरण-धूलि लेने में ही अपना अहोभाग्य समझते हैं। हम इन लोगों के सरल स्वभाव, अक्षुण्ण भक्ति और पवित्र हृदय को अत्यन्त आदर की दृष्टि से देखते हें। हमारा कहना केवल इतना ही है कि तत्कालीन सामयिक प्रवाह में ये लोग बह गये थे कि उससे बाहर आकर श्रीकृष्ण चरित को न देख सके, अपितु उसी प्रवाह को श्रीकृष्ण चरित पर भी आरोपित करने का यत्न करने लगे। हाँ, इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि कामकेलि में डूबी हुई उस समय की जनता का घोर श्रृंगार-रस से सम्पुटित भगवत्कथा ने भी कुछ उपकार तो अवश्य ही किया होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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