श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण
अमरकोष में इन्होंने स्वर्ग और स्वर्गवासी देव-सामान्य का नाम निर्देश करने के बाद सबसे पहले बुद्ध भगवान की ही नामवली गिनायी है। राम का तो इन्होंने अन्त तक कहीं नाम ही नहीं लिया। जैसे अन्य व्यक्ति वाचक शब्दों को वशिष्ठ, विश्वामित्र, दशरथ, दिलीप, वाल्मीकि आदि को इन्होंने छोड़ दिया है वैसे ही श्रीराम को भी छो़ड़ दिया, परन्तु यह श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में यही बात न कर सके, कृष्ण के नाम के आगे इनका मस्तक अनिच्छापूर्वक ही जबरदस्ती झुक गया। चाहे प्रच्छन्न श्रीकृष्ण भक्ति के कारण हो, चाहे श्रीकृष्ण की अलौकिक शक्तियों के ज्ञान के कारण हो और चाहे उस समय विश्व्व्यपिनी श्रीकृष्ण भक्ति के प्रबल प्रवाह के कारण हो, कारण चाहे जो कुछ हो, परन्तु यह प्रत्यक्ष है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश का वर्णन करते हुए अमरसिंह को श्रीकृष्ण नाम झख मारकर लेना पड़ा है। केवल नाम ही नहीं, उन्होंने तो विष्णु के स्थान में इन्हीं का सागोपाग वर्णन किया है। ʻविष्णुर्नारायण: कृष्ण:ʼ से आरम्भ करके उन्होंने उपेन्द्र (इन्द्र के छोटे भाई), कैटभजित (मधुकैटभ के मारने वाले) श्रीपति, स्वयम्भू, यज्ञपुरुष, विश्वरूप, जलशायी के साथ-साथ दामोदर, माधव, देवकीनन्दन और वसुदेव का पुत्र भी कहा है। क्षीरशायी विष्णु तो देवकीनन्दन या वसुदेवसूनु हो नहीं सकते, अत: यह स्पष्ट है कि अमरसिंह ने विष्णु को श्रीकृष्ण के रूप में नहीं बल्कि श्रीकृष्ण को ही विष्णु के रूप में अंकित किया है। इसी के आगे बलरामजी भी आ गये हैं। प्रद्युम्न को (कृष्ण पुत्र को) कामदेव के नामों में स्थान मिला है, यद्यपि काम के पर्यायवाचकों के स्थान पर ʻप्रद्युम्नʼ का प्रयोग संस्कृत- साहित्य में कहीं नहीं होता। सारांश यह है कि श्रीकृष्ण की अलौकिक शक्तियों और लोकातिशायी प्रभाव की छाप उनके जन्मकाल से लेकर हजारों वर्ष बाद तक— बौद्ध-धर्म के बाद तक— विधर्मियों तक पर अटूट बनी रही, इनके भक्तों की संख अपरिमेय रही और बराबर बढ़ती ही गयी। आगे चलकर जैसे-जैसे समय का अध:पात हुआ वैसे-ही-वैसे भगवान श्रीकृष्ण के चरित्रचन्द्र पर भी काले धब्बे दीखने लगे। सभी अपनी-अपनी मानसिक कल्पनाओं को कृष्ण चरित पर लादने लगे। अनेक ऐसी बातें भी श्रीकृष्णचरित के नाम से फैलीं जिनका ʻश्रीभागवतʼ में भी कहीं नामोनिशान तक नहीं है। भक्ति के उद्रेक में भक्तों के हृदय का सामयिक प्रभाव कृष्ण चरित पर लादा जाने लगा। इसी जोश में अनेक छोटे-मोटे, उलटे-सीधे काव्य बने। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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