श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण
भगवत गीता एक प्रकार से भगवान का प्रति-रूपक है। भगवान ने कहा है कि ʻमुझे जो जिस भावना से भजता है उसे मैं उसी रूप में दीख पड़ता हूँʼ। ʻये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्ʼ भगवतगीता के सम्बन्ध में भी यही बात प्रत्यक्षर सत्य प्रतीत होती है। इसे जिसने जिस भाव से देखा उसे यह वैसी ही दीख पड़ी। संसार से सम्बन्ध– विच्छेद करने वाले निस्पृह संन्यासी की बगल में भी गीता की पुस्तक मिली है और बम या पिस्तौल से अंग्रेजों को उड़ा देने की हिंसावृत्ति रखने वाले नवयुवकों की झोली भी यह पायी गयी है। कुछ दिन पहले तो यहाँ की पुलिस राजद्रोहात्मक साहित्य के साथ गीता की पुस्तक को भी पकड़ा करती थी। इसके भाष्य भी सैकड़ों हैं। सभी को अपने-अपने मतों का मूल इसमें दीख पड़ा है। सांख्य योग, वेदान्त सभी कुछ इसमें मिलता है। ज्ञानयोग, कर्मयोग, उपासनायोग ध्यानयोग, कर्मसंन्यास, सर्वधर्म-संन्यास द्वैत अद्वैत, शुद्धाऽद्वैत, विशिष्टाद्वैत, दैताद्वैत आदि मतों के मानने वाले अनेक आचार्यों ने गीता पर भाष्य लिखे हैं और सभी ने इसी अपने मत का पोषक बताया है। लोकमान्य श्रीबाल गंगाधर तिलक महाराज ने ʻगीता रहस्यʼ की भूमिका में गीता पर ʻपिशाच भाष्यʼ होने की बात लिखी है। हमने एक वाममार्गी सज्ज्न को यहाँ तक कहते सुना है कि गीता में मांस-शराब का सेवन करके, भगवान की उपासना करने का विधान है। हमारे पूछने पर उन्होंने कहा कि ʻमद्यʼ और ʻअजʼ (बकरा) खाने के बाद भगवान को नमस्कार करना या उनकी उपासना करनी चाहिये। इसके प्रमाण में उन्होंने गीता का यह पद्यांश उद्धृत किया— ʻमद्याजी मां नमस्कुरू।ʼ इसका अर्थ करते समय उन्होंने ʻमद्यʼ और ʻअजʼ शब्द के समस्त रूप के आगे मत्वर्थीय तद्धित इनि प्रत्यय बताया। ʻयान्ति मद्याजिनोऽपि माम्ʼ भी ऐसा ही वाक्य है।[1] मतलब यह कि गीता पर समस्त संसार मोहित है। सभी इसे अपनाने में अपना गौरव समझते हैं। जिसे पूरा प्रकरण नहीं मिलता वह दो एक शब्दों से ही अपना काम निकाल लेना चाहता है। गीता में वह आकर्षण है कि सभी भले-बुरे इसकी ओर आकृष्ट होते हैं और इसमें वह लोकोत्तर वैचित्र्य है कि सब प्रकार की भावना रखने वालों को इसमें अपना ही मुँह दीख पड़ता है। अब सोचना यह चाहिये कि गीता का वास्तविक स्वरूप क्या है ? उसका अपना कोई असली स्वरूप भी है या कि वह केवल एक गोरख-धन्धा है जिसमें जाकर सभी उलझ जाते हैं ? उसका कुछ वास्तविक तत्व भी है या वह एक ʻमोम की नाकʼ है, जिसे जिसका जिधर जी चाहे उधर ही मोड़ ले ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऐसा अर्थ करना गीता का सर्वथा दुरुपयोग है।
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