श्रीकृष्णांक
भगवद्विग्रह
यह नित्य जिस देश में सर्वदा विराजित हैं उस देश में कालकृत परिणाम नहीं है, आनन्द का अन्त नहीं है,– वह देश भगवान की नित्य-विभूतिस्वरूप है।
परन्तु भगवान का दूसरा रूप– जो व्यूह के नाम से परिचित है– इससे पृथक है। नित्यविभूति के बाहर लीलाविभूति में भगवान व्यूहरूप धारण करके अवस्थित हैं। यह रूप सृष्टि, पालन और संहार करने के लिये, संसारी जनों का संरक्षण करने के लिये ग्रहण किया जाता है। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध– ये चार व्यूह हैं। वस्तुत: संकर्षणादि तीन ही व्यूह हैं– वासुदेव तो व्यूह मण्डल में आकर व्यूहरूप में केवल गिने जाते हैं। जि– तब तो मालूम होता है कि परम रूप और व्यूह में यथेष्ट पार्थक्य है। परम रूप जगत के अतीत हैं– वहाँ सृष्टि आदि व्यापार नहीं हैं, संसार ही नहीं है इससे संसारी जनों का उद्धार भी नहीं है। सभी कृतकृत्य होने के कारण कोई उपासक नहीं है, इसलिये अनुग्रह भी नहीं है। परन्तु व्यूहरूप तो काल राज्य में ही स्थित प्रतीत होता है। व– तुमने ठीक कहा है। ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, वीर्य, शक्ति और तेज– इन छ: अप्राकृत गुणों का एक ही साथ प्रादुर्भाव भगवान के ही विग्रह में प्रकाशित होता है। इसीलिये शास्त्रों में भगवान को षगण्य-विग्रह कहा गया है। भगवान के जिस स्वरूप में ये छहों गुण पूर्णरूप से एक ही साथ स्थित हैं, उसी का नाम ‘वासुदेव’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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