श्रीकृष्णांक
भगवद्विग्रह
अब इस विषय को भलीभाँति समझने की चेष्टा करो। चक्षु के द्वारा हम रूप देखते हैं। कहना नहीं होगा कि यह स्थूल भौतिक रूप है। इसे देखने के लिये अनेक नियमों के पालन करने की आवश्यकता होती है। दृश्य पदार्थ का स्फुट आलोक में रहना, इन्दिय-गोलक की निर्विकारता, दृश्य पदार्थ के परिमाणगत आत्यन्तिक अणुत्व या महत्त्व का अभाव,चक्षु और दृश्य के मध्य में किसी प्रकार के व्यवधान का न होना इत्यादि– ये सब चाक्षुष ज्ञान के प्रतिबन्धक हैं। चक्षु जब तक स्थूल-देह के आधीन और उसके द्वारा अभिभूत रहता है तब तक इन सब प्रतिबन्धकों के कारण उसके साथ बाह्यरूप का संबंध नहीं हो सकता। परन्तु इन्द्रिय और देह का परस्पर संबंध शिथिल होने पर इन्द्रियाँ बहुत कुछ स्वतन्त्र हो जाती हैं– फिर पूर्वोक्त प्रतिबन्धक उनकी गति को नहीं रोक सकते। सुतरां, उस समय विप्रकृष्ट और व्यवहित वस्तु स्पष्ट देखी जा सकती है, सूक्ष्म वस्तु भी दृश्य होती है। साधारण मनुष्य इन्द्रिय के द्वारा जिसे नहीं देख सकता है, इस प्रकार की योग्यता विशिष्ट व्यक्ति उसे देख सकता है। यह एक प्रकार का अतीन्द्रिय-दर्शन ही है। जि– इन्द्रिय और देह का संबंध कैसे शिथिल होता है? व– यहाँ उसकी आलोचना नहीं करनी है, क्योंकि यह विषय योगतत्त्व की आलोचना का अंग है। परन्तु यह जान रखना चाहिये कि चित्तशुद्धि के फल से लिंग और देह का आपेक्षिक पार्थक्य प्रतिष्ठित होता है। तब इन्द्रियाँ भी देह से पृथक की भाँति काम कर सकती हैं। जि– आप कहना चाहते हैं कि इस प्रकार की चित्तशुद्धि से जो तथाकथित अतीन्द्रिय-दर्शन होता है, वह भी भगवत्रूप के दर्शन के अनुरूप नहीं है। व– निश्चय ही। तुम क्या यह सोचते हो कि देवर्षि नारद अतीन्द्रियदर्शी नहीं थे? तथापि वे भगवद्रूप का दर्शन नहीं कर सके। भगवद्रूप अतीन्द्रिय अवश्य है, परन्तु अतीन्द्रिय-वस्तुओं के भी स्तर हैं। इन्द्रिय के अगोचर राज्य में जाते ही भगवद्धाम में प्रवेश नहीं हो जाता। परन्तु यह बात भी नहीं है कि भगवद्रूप इन्द्रियगोचर ही नहीं होता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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