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श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण का अवतार-प्रयोजन तथा परत्व
आपकी प्रेरणा से प्राणियों में ही परस्पर विवाद हुआ करता है। अवश्य ही इस सम्पूर्ण कौरव पाण्डवों के बीच होने वाले कलह के कारण तो आप ही हैं, आप ही की इच्छा से काल स्वरूप आपकी विषमता अथवा घृणाबुद्धि सिद्ध नहीं होती, आप तो केवल जीवों के कर्मानुसार ही उनकी प्रवृत्ति के नियामक हैं। जिसके परिणामस्वरूप वे सुख या दुःख भोगा करते हैं। यदि आप कहें कि मैं स्वयं भी किसी पर कृपा और किसी पर दमन करने के कारण फिर वैषम्य रहित कैसे हो सकता हूँ?, सो इसमें मेरा निवेदन है कि- हे भगवान! मनुष्यों के अपकार की-सी चेष्टा करते हुए आप क्या करना चाहते हैं यह कोई नहीं जान सकता। कहीं-कहीं आपका किया हुआ विग्रह भी अनुग्रहरूप होता है अतः आपमें विषमता की तो गन्ध भी नहीं है। आपने पूतना, शकटासुर, यमलार्जुन, धेनुक, केशि, कुवलयापीड, चाणूर, मुष्टिक, तोषल और कंस आदि दुष्टों का दमन किया था, तथापि उससे उन्हें निरतिशय पुरुषार्थ रूप मोक्ष पद प्राप्त हुआ। जबकि आपके दमन में भी इतना उपकार भरा हुआ है तो अवश्य ही जो लोग आप में विषमता का आरोप करते हैं उनकी बुद्धि में ही वह दोष है। वास्तव में आप सर्वत्र और सर्वदा सबके प्रति समभाव से देखते हैं। मनुष्यों के उपकार के लिये आप केवल मानवचरित्रों का अनुकरण ही करते हैं। यथार्थ में आपकी लीलाएँ साधारण मनुष्य चरित्र जैसी नहीं हैं। हे विश्वात्मा ! आप वास्तव में तो अजन्मा और अकर्मा हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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