श्रीकृष्णांक
मोक्ष-संन्यासिनी गोपियां
यह गोपी प्रेम बड़ा ही पवित्र है, इसमें अपना सर्वस्व प्रियतम के चरणों में न्योछावर कर देना पड़ता है। मोक्ष की इच्छा और नरक का भय दोनों से ही मुख मोड़ लेना पड़ता है। प्रियतम श्रीकृष्ण का प्रिय कार्य करना ही जीव का एकमात्र उद्देश्य बन जाता है। दूसरे के द्वारा मुझे सुख मिले, मेरी इन्द्रियों की और मन की तृप्ति हो, इसका नाम ‘काम’है, चाहे वह भाव भगवान के प्रति ही क्यों न हो और ‘मेरे द्वारा मेरा प्रियतम सुखी हो, इसी से मैं सुखी होऊँ,’ इसका नाम ‘प्रेम’ है, काम भोग के लिये और प्रेम परमात्मा के लिये हुआ करता है। विषयानुराग ही काम है और भगवदनुराग ही प्रेम है। यह प्रेम बढ़ते-बढ़ते जब प्रेमी को प्रेमास्पद भगवान का प्रतिबिम्ब बना देता है तभी प्रेम पूर्णता के समीप पहुँचता है। श्रीचैतन्य-चरितामृत में ‘काम’ और ‘प्रेम’ का भेद बतलाते हुए कहा है – कामेर तात्पर्य निज संभोग केवल । प्रेमी को तो प्रेमास्पद भगवान के इंगितानुसार लोकधर्म, वेदधर्म, देहधर्म और सारे कर्म तथा लज्जा, धैर्य, शरीरसुख, आत्मसुख आदि का सबका त्याग कर देना पड़ता है। जो लोग कहते हैं कि श्रीकृष्ण प्रेम में त्याग और वैराग्य की आवश्यकता नहीं, वे बहुत ही भूलते हैं। श्रीकृष्ण प्रेम की प्राप्ति का आधार तो श्रीकृष्णार्थ सर्वस्व त्याग ही है– तभी श्रीकृष्णरूप परमशान्ति प्राप्त होती है– ‘त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ।’ जब तक विषयों में मन रहता है, तब तक तो भगवान का प्रेमपूर्वक निरन्तर चिन्तन ही नहीं हो सकता, फिर समर्पण की तो बात ही कहाँ हैं। यह भ्रम है कि लोग विषयासक्त-चित्त से विषयों का सेवन करते हुए अपने को भगवान का प्रेमी और गोपी प्रेम के कहने सुनने और तदनुसार आचरण करने का अधिकारी मानते हैं, इसी से उनका पतन होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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