श्रीकृष्णांक
मोक्ष-संन्यासिनी गोपियां
गोपियां कहती हैं– कान्ह भये प्रानमय प्रान भये कान्हमय, और भगवान अपने इस तरह के भक्त के लिये कहते हैं कि वह तो मेरा आत्मा ही है। ‘आत्मैव मे मतम्।’ आत्मा क्या है, वह उससे भी अधिक प्यारा है– न तथा मे प्रियतम आत्मयोनिर्न शंकर: । मुझे ब्रह्मा, संकर्षण, लक्ष्मी एवं अपना आत्मा भी उतना प्रिय नहीं है, जितना अनन्य भक्त प्रिय है। क्योंकि मेरा ऐसा भक्त मुझ में ही संतुष्ट है। उसे मेरे सिवा और कुछ भी नहीं चाहिये– न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं इस प्रकार का मेरा प्रिय भक्त अपने आत्मा को मुझ में अर्पित कर देता है, वह मुझको छोड़कर ब्रह्मा का पद, इन्द्र का पद, चक्रवर्ती का पद, पाताल आदि का राज्य और योग की सिद्धियां आदि की तो बात ही क्या है, मोक्ष भी नहीं चाहता। ऐसे मोक्ष-संन्यासी भक्तों को जो सुख मिलता है, उसे वही जानते हैं। ऐसे इच्छारहित, मद्गतचित्त, शान्त और निर्वैर और समदर्शी भक्तों के चरण-रज से अपने को पवित्र करने के लिये मैं सदा उनके पीछे-पीछे घूमा करता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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