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श्रीकृष्णांक
कृष्ण – कृष्ण कहते मैं तो कृष्ण हो गया !
क्या कहा ? ‘यह भेद-बुद्धि की बात है’। दरअसल भेद-बुद्धि की बात है। मैं भक्त-अभक्त का फैसला करने वाला कौन ? ज्ञानी वही जो सबको एक दृष्टि से देखे। सबमें एक भगवान का वास समझे। अच्छा, तो चाहे जो करो, मैं अब तुम्हारे काम में हस्तक्षेप करना नहीं चाहता। अब लो, अपनी बात भी नहीं कहूँगा। चाहे मेरा उद्धार करो, चाहे यों ही तडपाओ। नटनागर ! तुम्हारी लीला को समझने में मैं असमर्थ हूँ। इस भूलभुलैया में न जाने कब तक भटकूँगा। इसलिये छोडी सब इच्छा–आकांक्षा। छोड़ा सब सोच-विचार। जैसे मैं किसी का अहित नहीं चाहता। वैसे किसी का हित करने की मांग भी तुम्हारे सामने पेश करने का मुझे कोई अधिकार नहीं, अब अपना भला भी नहीं चाहता। लो, धर्माधर्म, कर्माकर्म, इच्छा-अनिच्छा सब कुछ तुम्हें सौंपा। अब तुम जो नाच नचाओगे नाचूँगा। तुम्हारे हाथ का हथियार होकर रहूँगा। यह भी नहीं, इसमें भी कर्तव्य बुद्धि है, यह भी तुम्हें सौंपी। अब कुछ नहीं चाहता मुक्ति भी नहीं चाहता। केवल तुम्हारी कृपा चाहता हूँ, तुम्हारा सान्निध्य चाहता हूँ। तुम्हीं मेरा नहीं-नहीं, अपने एक विशिष्ट नामरूपधारी अंश का चाहे जिस प्रकार उपयोग करो, पर एक बात बस, एक बात मेरी। तुम्हारी मोहनमूर्ति सदा मेरी आंखों के सामने रहे। तुम्हारे फैसले की कहीं अपील नहीं हो सकती। सर्वेसर्वा हो न ? अच्छी बात है। छिपो, कहाँ तक छिपोगे ? कभी न कभी तो सामने आओगे ही। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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