श्रीकृष्णांक
श्रीकृष्ण और भागवत–धर्म
अब देखिये कि भक्त के लिये कितना आश्वासनपूर्ण वाक्य भगवान ने कहा है– अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् । बस एक ही शर्त है। भगवान में अनन्यभक्ति होनी चाहिये। यदि इस एक शर्त का पालन हो गया तो फिर कोई कैसा ही दुराचारी क्यों न रहा हो, साधु ही माना जाता है। क्यों ? इसलिये कि उसकी अनन्यभक्ति के परमोज्जव प्रकाश के प्रभाव से उसका दुराचरणरूपी अन्धकार क्षण में ही दूर हो जाता है, उसे अपने अन्तस्थ में दिव्य ज्योति की अनुभूति होने लगती है, उसके मन के सारे विकार नष्ट हो जाते हैं और वह बड़े से बड़ा धर्मात्मा बनकर परम शान्ति का अधिकारी हो जाता है। क्षिप्र भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छन्ति । अहा ! भक्त की इतनी बड़ी महिमा। भगवान प्रतिज्ञा करके कहते हैं, मेरे भक्त का कभी नाश नहीं होता। वह तो शाश्वत, चिरन्तन भक्तिरस का पान करता हुआ अपने राम में रमा रहता है। भक्तिरस का मधुर प्याला उसके ओठों से कभी अलग नहीं होता। यदि भगवान इतना ही कहकर समाप्त कर देते तब तो बेचारे शूद्र-चाण्डाल आदि अन्त्यज तथा स्त्रियां, जिनके लिये ज्ञानयोग का मार्ग अवरुद्ध था, जो वेद-उपनिषद आदि ग्रन्थों के अधिकारी नहीं समझे जाते थे उन बेचारों की क्या दशा होती। और उन्हीं की क्यों ? आज करोड़ों नामधारी उच्च वर्ण के लोगों का क्या सहारा होता जबकि वेद की कौन कहे साधारण संस्कृत का ज्ञान भी उनके लिये आकाश-कुसुमवत है। लेकिन घबराइये नहीं। भगवान ने इस श्रेणी के लोगों के लिये भी उपाय बता दिया है। उसी भक्ति-रूपी रामबाण महौषधि का भरोसा कर भगवान के पास चले जाइये, कहीं इधर-उधर भटकिये नहीं। पूर्ण निष्ठा एवं श्रद्धा के साथ इस अचूक दवा को अपने रोग का एकमात्र प्रतिकार समझकर इस श्रीकृष्णरूपी वैद्यराज के पास चले जाइये। बस, आपका यह भवरोग, जन्म जरा-व्याधि सदा के लिये दूर हो जायगी। और फिर आप परमगति पा जायँगे। भगवान का वाक्य है- मां हि पाथ व्यपाश्रित्य येअपि स्यु: पापयोनय: । स्त्रियों, शूद्रों और पापयोनि के जीवों के लिये इससे बढ़कर आश्वासन-वाक्य और कय हो सकता है ? और फिर घोषणा करने वाले भी कोई ऐसे वैसे नहीं। साक्षात भगवान श्रीकृष्ण। फिर ये लोग भी क्यों न निर्भय होकर इस भक्ति के पुनीत क्षेत्र में आ जायँ और इस भक्ति गंगा में अवगाहन करके अपने जीवन को सार्थक एवं धन्य बना लें ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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