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उसका वह प्रदीप्त और चकित मुखड़ा और उससे निकला हुआ यह प्रश्न सांसारिक भूलभूलैया में भटकने वालों के लिये तब से बराबर आकाश प्रदीप के समान बन रहा है। ऐ विस्मरणशील सुहृद् ! वह मैं ही था जिसने बच्चे के रूप में तुमसे यह प्रश्न करके तुम्हें प्रमाद तन्द्रा से जगाकर अपनी आंख-मिचौनी का स्मरण कराया था। तुमने मुझे देखा और खिलखिला उठे, पर पकड नहीं सके। मैंने ताली बजायी, आनन्द लिया और फिर हो गया मैं नौ दो ग्यारह ! उस बालिका के चहरे की निष्कपट ओर आत्मविस्मरणशील दृष्टि, जो पाठशाला में दिये गये प्रश्न को हल करने में तल्लीन थी अथवा वीणा के तारों पर अंगुलियां चलाती हुई आत्मसंगीत को जनाने का प्रयत्न कर रही थी, उस बालिका की सगर्व दृष्टि जो नयी खरीदी पुस्तक, स्लेट आदि के भारी बोझ को मजे से लादे हुए धूलभरी सड़क से आनन्दित होती हुई आ रही थी, उन देहाती मजदूरों की दृष्टि, जो संसार के जंजालों में पड़े हुए भी पूर्ण प्रसन्न और सन्तुष्ट थे– इन सबको देखकर तुम दंग रह गये और तुम्हारे मस्तिष्क में एक दूरवर्ती निष्कपट प्रेम, प्रकाश और लीला से युक्त सुन्दर लोक की हलकी सी छाया झलक गयी। हे सखे ! यह मैं ही था जिसने उन विभिन्न रूपों से तुम्हारे हृदय को स्पर्श किया और अपने आंखमिचौनी के खेल को पुन: स्मरण कराया। पहले जब हम लोग खेला करते थे तो बराबर एक-दूसरे को पकड़ते थे और फिर हँसकर भाग जाने देते थे, पर अब तुम बार-बार भूल जाते हो और मुझे तुम्हें उसकी यद दिलाकर सजग करना पड़ता है।
वाटिकाओं के पुष्पों के सुन्दर रंग-रूप और मधुर सुगन्ध में छिपे-छिपे मैं तुम्हें बुलाकर आनन्दित करता और उसकी याद दिलाता हूँ, खड़ी हुई हरी-भरी सुन्दर साफ घास के चमकते हुए मुलायम तिनकों में तथा पौधों के कोमल किसलयों में छिपे हुए मैं तुम्हें मिलता और उसका ध्यान दिलाता हूँ, आनन्दपूर्ण तारागणों की झिलमिल-झिलमिल जगमगाहट में छिपकर मैं निरन्तर तुम्हें प्रफुल्लित करता हूँ और तुम्हारे ऊपर दृष्टि रखते हुए तुम्हें अपनी लीला का स्मरण दिलाता हूँ। आकाश की अत्यन्त घनी गहरी सुहावनी नीलिमा में अन्तर्हित रहकर मैं तुम्हें क्षुद्र सांसारिक वस्तुओं से तुम्हारा ध्यान हटाकर अपनी ओर खींच लेता हूँ और तुम्हारे हृदय में उत्साह, स्फूर्ति और शान्ति प्रदान करता हूँ।
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