श्रीकृष्णांक
चीर-हरण का रहस्य
भगवान नीचे के शब्दों में उसे स्पष्ट करते हैं – संकल्पो विदित: साध्व्यो: भवतीनां मदर्चनम् । इसके बाद यहाँ एक श्लोक देखने में आता है, जिससे उपर्युक्त श्लोक के युक्तियुक्त विचार करने की आवश्यकता जान पड़ती है, वह श्लोक है– न मय्यावेशितधियां काम: कामाय कल्पते । काम कामना इच्छा यह इस संसार के अनादि प्रवाह को बीजांकुर न्याय से चलाने वाले हैं। भगवान को पतिरूप में प्राप्त करने पर संसार की प्राप्ति और जन्म-मरण का दु:ख कदापि नहीं रहना चाहिये। जन्म:मरण के दु:ख से छुटकारा पाने के ध्येय में श्रीकृष्ण-प्राप्ति की इच्छा बाधक हैं या नहीं, इस प्रकार की शंका व्रज-कुमारियों के हृदय में स्फुरित हुई हो और मानो अन्तर्यामी प्रभु उसका खुलासा करते हों, ऐसा ही भाव उपर्युक्त श्लोक से जान पड़ता है।
कामना-इच्छा को परमात्मा ज्ञानाग्नि से दग्धकर बीजांकुर-न्यायवत संसार के अनादि प्रवाह को बन्द कर देते हैं, इस बात को ‘भूँजे हुए (दग्ध) बीज नहीं उगते’ इस दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं। सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते । इससे उनका रहस्य सहज ही समझा जा सकता है। इस रहस्य को एक-दूसरे प्रकार से भी देखा जा सकता है, वस्त्र-हरण के बाद आप वस्त्रों को वापस लौटा देते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भा. 10। 22। 25
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