श्रीकृष्णांक
भगवान श्रीकृष्ण का प्रभाव
भगवान श्रीकृष्णचन्द्र जी प्रेम और आनन्द की तो मूर्ति ही थे। उनका अवतार प्रेम और धर्म के संस्थापन और प्रचार के लिये ही हुआ था। भगवान ने विशुद्ध प्रेम का जो विशाल प्रवाह बहा दिया उसे एक बार समझ लेने पर ऐसा कौन है जिसका हृदय द्रवित और आनन्द से पुलकित न हो जाय। परन्तु उनकी प्रेममयी लीला और उनके गहन प्रेम के तत्व का ज्ञान उनके अनुग्रह से ही हो सकता है। श्रीमद्भागवत आदि पुराणों में गोपियों के साथ भगवान के प्रेम के व्यवहार का जो वर्णन आता है उसे पढ़ने पर मनुष्य के हृदय में अनेक प्रकार की शंकाएं उत्पन्न होती हैं। अक्षरों के अर्थ से तो उस प्रेम में विषय-विकार ही टपकता है, परन्तु यह प्रसंग विचारणीय है। यदि गोपियों के साथ भगवान का विषयजन्य अनुचित प्रेम होता तो उद्धव सरीखे महात्मा और गौरांग महाप्रभु सदृश त्यागी भक्त और सन्तजन उसकी कभी प्रशंसा नहीं करते। गोपियों को प्रेम मूर्खतापूर्ण नहीं था, वे श्रीकृष्ण को साक्षात भगवान समझती थीं। स्वयं गोपियों के वाक्य हैं– न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरात्मदृक् । हे सखे ! ब्रह्मा की प्रार्थना पर आपने विश्व के पालन के लिये सात्वत (यदु) कुल में अवतार लिया है। आप केवल यशोदा के ही पुत्र नहीं हैं, वास्तव में आप समस्त प्राणियों के अन्तरात्मा साक्षी हैं’। इससे सिद्ध होता है कि उनका प्रेम विशुद्ध और ज्ञानपूर्ण था। उनके प्रेम की सभी सन्त-पुरुषों ने सराहना की है। इतना ही नहीं, स्वयं भगवान ने भी उनके प्रेम की महिमा गायी है और अर्जुन से कहा है कि– निजांगमपि या गोप्या ममेति समुपासते । अर्थात हे पार्थ ! गोपियां अपने शरीर की इसीलिये सँभाल रखती हैं कि उससे मेरी सेवा होती है, गोपियों को छोड़कर मेरे निगूढ प्रेम का पात्र और कोई नहीं है। इसके अतिरिक्त भगवान स्वयं ज्ञानस्वरूप हैं, उनमें तो विष-विकार की आशंका ही नहीं की जा सकती। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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