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मैं क्या सचमुच गलती कर रहा हूँ, नाथ, जो उस स्वर्ग दिन की आशा में अपने जीर्ण जीवन के दिन बड़े मजे से गिना करता हूँ, जिस दिन आज के इन अनेक प्रचलित मत-मजहबों के स्थान पर तुम्हारे उस वंशी-निनांदित अनन्त मधुमय प्रेम धर्म का ही अखण्ड साम्राज्य या अखिल स्वाराज्य यह सन्तप्त संसार अपनी धुंधली आंखों से परितृप्त हो देखेगा ? मेरी यह अजीब सी आशा क्या कभी पूरी होगी, तुम पूरी करनी चाहो, तो अभी कर सकते हो, प्रभो ! दिखाना चाहो तो यह भी एक अपने प्रेम का निराला सा नजारा दिखा सकते हो, कृष्ण, इस भूली-भटकी बावली दुनिया को। मेरे कृष्ण ! खींच लो मुझे अब तो अपनी ओर मेरा असहाय हाथ पकड़कर। आज, कहीं पता लगाते-लगाते तुम्हें इस मोहन-मन्दिर में खोजने आया हूँ। अब तो न छिपो। यह कैसा सुन्दर मन्दिर है ! इस मोहन मन्दिर के अन्दर में क्या–क्या देखता हूँ ! इसमें गोकुल गांव और वृन्दावन भी है और मथुरा और द्वारका भी है ! यहीं अयोध्या और मिथिला भी है और काशी और अवन्तिका भी हैं ! और, ऐं ! यहीं मक्का और जेरूसलेम भी हैं !! प्यारे कृष्ण ! क्या इस दिल के मन्दिर में भी तुम न मिलोगे ? हो नहीं सकता– यह मन्दिर ईंट पत्थर या सोने चांदी का मामूली मन्दिर नहीं है। यह तो दर्दीले दिल का मौजभरा मेरा मोहन मन्दिर है।
जरूर तुम यहाँ अपना वह प्यारा दीदार दिखाओगे, जरूर यहाँ तुम अपनी वह रसभरी बांसुरी सुनाओगे। तुम्हारी कृपाभरी की देरी है, सरकार, दर्शन दोगे और फिर दोगे। हां, अब अन्त में तुम्हारी कृपा ही तो मुख्य है। पर कृपा भी, प्यारे तुम उसी तदीय जन पर करते हो, जिसके पवित्र हृदय के अन्दर तुम्हारे और तुम्हारी सृष्टि के लिये दु:ख और दर्द होता है, कुछ आह और कसक होती है। उसी दर्द दीवाने को तुम अपना प्यार दीदार देते हो, उसी पीर-पगले को तुम अपनी मुरली सुनाते हो। हम जैसे पतित पापियों और दुष्ट-दम्भियों के भाग्य में कहाँ है तुम्हारे पुनीत प्रेम का वह दुर्लभ रसानन्द ? फिर भी आशान्वित हैं ! नाथ, तुम्हारी उस परम कृपा के अनन्य अधिकारी क्या हम भी कभी हो सकेंगे ?
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