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श्रीमद्भागवत में भी देवी-चरित्र भरा पड़ा है। उदाहरणार्थ– सरस्वती की उत्पत्ति, सती चरित्र, भद्रकाली चरित्र, पार्वती चरित्र, लक्षम्यवतार, भवानी चरित्र, योगमायातवार नाम चरित, कात्यायन्यर्चन, यादवकृतदुर्गार्चनादि। और फिर ‘भगवत्याश्च’ के ‘च’ से कार से ‘श्रीकृष्णचरित्र’ अर्थ भी तो बड़े मजे से निकलता है। श्रीधरजी ने अपनी टीका में जो यह लिखा है कि ‘अतएव भागवतं नामान्यदितिनाशंकनीयम्’ (इसलिये भागवत का नाम और कोई पुराण है ऐसी शंका नहीं करनी चाहिये)। इस पर भी शंकालु जन यह कहते हैं कि श्रीधरजी के ध्यान में भी कोई दूसरी भागवत थी, ऐसा मालूम होता है। पर यह शंका निर्मूल है। कारण, व्याख्यान में आक्षेप और समाधान तो हुआ ही करता है, पर वह ग्रन्थ का खण्डन करने के लिये नहीं बल्कि ‘स्थूणाखनन’ न्याय से उसे और अधिक दृढ़ करने के लिये होता है। पर हां, कहीं-कहीं श्रीधरजी की उक्त पंक्ति में ‘बोपदेवकृतमिति नाशंकनीयम्’ ऐसा पाठ मिलता है जो पीछे से बदला हुआ मालूम होता है और जिसका निराकरण आगे किया जायेगा। एक शंका यह भी है कि मतस्य पुराण के ‘सारस्वतस्य कल्पस्य मध्ये ये स्युर्नरामरा। तद् वृत्तान्तोद्भवं लोके तद्भागवतमुच्यते’ वचन के अनुसार भागवत उसे कहना चाहिये जिसमें सारस्वत कल्प में हुए अमर नरों का वृत्तान्त हो। पर भागवत के द्वितीय स्कन्ध में लिखा है कि ‘पाद्मं कल्पमथो श्रृणु’ तब फिर इसे व्यास कृत कैसे मान सकते हैं, पर यह शंका व्यर्थ है। कारण, सारस्वत कल्प की कथा इसमें भरपूर है।
इसमें श्रीकृष्ण चरित्र का जो वर्णन है वह सारस्वत कल्प का ही है जिसका कि बृहद्वामन पुराण के ‘आगामिनि विरंचौ तु जाते सृष्ट्ययर्थमुद्यमे, कल्पं सारस्वतं प्राप्य व्रजे गोप्यो भविष्यथ’ इस श्लोक से भी समर्थन होता है। अब रही पाद्मकल्प सम्बन्धी बात, सो इसमें प्रसंगवश ब्राह्म और वाराहकल्प की भाँति उसका भी संक्षिप्त वर्णन आ गया है। यह भी एक शंका की जाती है कि ‘यदिदं कालिकाख्यं तन्मूलं भागवतं स्मृतम्’ कालिका पुराण के इस वचन में उक्त पुराण मूल भागवत को बतलाया गया है, जो देवीभागवत ही हो सकती है– विष्णु भागवत नहीं। पर शंका का समाधान यह है कि वैकृतिक रहस्य में कालिका को वैष्णवी माया बतलाया गया है। ऋग्वेदान्तर्गत देवीसूक्त में स्वयं देवी जी ही कहती हैं– ‘मम योनिरप्स्वन्त: समुद्रे’ अर्थात समुद्रशायी भगवान मेरा योनिमूल हैं। और फिर यदि ऐसा न मानकर यानी कालिका तत्व के हिसाब से कालिका पुराण का मूल श्रीमद्भागवत को न मानकर देवीभागवत को ही माना जाय तो इसमें भी क्या आता-जाता है ? क्या यह कोई जरूरी है कि एक उपपुराण का मूल कोई महापुराण ही हो सकता है– कोई उपपुराण नहीं ? सम्भव है कि कालिका उपपुराण का मूल देवीभागवत उपपुराण ही हो। अस्तु।
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