किया-कराया दिव्य परम रस-दान-पान अति कर सम्मान।
प्रति गोपीको दिया परम सुख धर अनन्त वपु दिव्य महान॥
प्रेमभिक्षु बन स्वयं किया गोपी-प्रदा सुख अङ्गीकार।
बोले-’प्रेमरमणियों ! यह निरवद्य तुहारा रस-व्यवहार॥
घरकी तोड़ अटूट बेडिय़ाँ तुमने मुझे भजा अविकार।
सदा बढ़ाता रखेगा यह मुझ पर सुखमय ऋणका भार॥
नहीं चुका सकता मैं बदला इसका देव-आयु-चिरकाल।
तुहीं स्वसाधुता से कर सकतीं मुझे कभी ऋणमुक्त निहाल’॥
राधा आदि गोप-रमणी सब सुनकर प्रियतमकी यह बात।
हुर्ईं चकित वे लगीं देखने अपलक-दृग प्रिय-मुख-जलजात॥
देते दिव्य अनन्त परम सुख, निजको ऋणी मानते आप।
कैसा शील-स्वभाव विलक्षण, कैसा हृदय उदार अमाप॥