कामगन्ध से शून्य सर्वथा -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

प्रेम तत्त्व एवं गोपी प्रेम का महत्त्व

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लावनी पहली तर्ज - ताल कहरवा

कामगन् शून्य सर्वथा, निज सुखकी इच्छा से हीन।
कृष्ण-सुखेच्छा ही जीवन है नित्य कृष्ण-सुख-दर्शन-लीन॥
कृष्ण प्रेमरस-सार-विनिर्मित है उनका अति दिव्य शरीर।
नव-नव कृष्ण सुखाभिलाष से रहता उनका चित्त अधीर॥
यदि श्रीकृष्ण सुखी हों तो अति दुःख उन्हें हों अति सुखरूप।
दुःखोदधि में रहकर भी वे सुखका अनुभव करें अनूप॥
निजसुख-वाञ्छा-लेश न उनके, मनमें तनिक न काम-विकार।
तो भी कृष्णसुखेच्छा से वे करतीं निज सुख को स्वीकार॥
सुख-‌उपभोग काल में भी वे नहीं भूलतीं प्रिय-सुख-काम।
इसीलिये वे निज सुख में नित रहतीं अनासक्त, निष्काम॥
गमन-‌आगमन, शयन-जागरण, वस्त्राभूषण, तन-श्रृंगार।
सभी कृष्णसुख-हेतु, प्रेम-रसपूर्ण नित्य आहार-विहार॥
यदि श्रीकृष्ण सुखी होते हों, उनमें देख क्रोध, मद, मान।
तो वे अति उल्लास सहित करती हैं क्रोध, महामद, मान॥
रूठ बैठतीं, परुष बोलतीं, करतीं तिरस्कार-‌अपमान।
लोक-वेद से कभी न डरतीं, यदि सुख पाते प्रिय भगवान॥
है आसक्ति कृष्ण-सुख में अति, है मन अमित कृष्ण-सुख-काम।
कृष्ण-सुखेच्छामय जीवन है, परम पवित्र दिव्य सुखधाम॥
भुक्ति-मुक्ति की नहीं पिशाची इच्छा का उनके मन बीज।
प्रेमानन्द-सुधा-रसमय दुर्लभ नित रस-समाधि निर्बीज॥
परम रय, शुचि, दिव्य, अहं की चिन्ता से विरहित नित धन्य।
सुर-मुनि-दुर्लभ, कृष्ण-प्रेम-रसमय यह ‘गोपीप्रेम’ अनन्य॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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