कान्ह कही सो तौ नहिं ह्वै है।।
किधौ नई सिखई सीखे हरि, निजअनुराग बिछौहै।।
संचित करै पेट मैं राखे, वे बातै बिकचोहै।
स्याम सु गाहक पाइ सयाने, छोरि दिखाये सोहै।।
सोभा निधि सागर नागर मन जग जुबती हठि मोहै।।
लिये रूप गुन ज्ञान गठरिया, पहिलै ठग्यौ ठग ओहै।
ये निरगुन सर मारि कमल घर, चाहै करै अयौ है।।
‘सूरदास’ नागर नारि निकट, जिन्है आज सब मोहै।। 183 ।।