कहा करैगौ कोऊ मेरौ।
हौं अपनैं प्रतिब्रतहिं न टरिहौं, जग उपहास करौ बहुतेरौ।।
कोउ किन लै पाछैं मुख मोरै, कोउ कहि स्रवन सुनाइ न टेरौ।
हौं मति कुसल नाहिंनै काची, हरि-संग छाँड़ि फिरौं भव-फेरौ।।
अब तौ जिय ऐसी बनि आई, स्याहम-धाम मैं करौं बसेरौ।
तिहिं रँग सूर रंग्यौ मिलि कै मन, होइ न स्वेत, अरुन फिरि पेरौ।।1658।।