कर तैं धरयौ गिरिवर धरनि -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग नट


कर तैं धरयौ गिरिवर धरनि।
देखि व्रज-जन छबि रहे थकि, रुप रति-पति हरनि।।
लेत बेर न धरत जान्यौ, कहत ब्रज घर-घरनि।
तन ललित भुज अतिहिं कोमल, कियो बल बहु करनि।।
मोर मुकुट, बिसाल लोचन, श्रवन कुंडल बरनि।
नव जलद, सुरचाप की छबि, जुगल खंजन तरनि।।
बरषि निझरे मेघ-पाइक बहुत कीनी अरनि।
सूर सुरपति हारि मानी तब परयौ दुहुँ चरनि।।959।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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