कर कै, कंकन नहीं छूटै
राम सिया-कर-परस मगन भए, कौतुक निरखि सखी सुख लूटैं।
गावत नारि गारि सब दै दै, तात भ्रात की कौन चलावै।
तब कर-डोरि छुटै रघुपति जू, जब कौसिल्या माता आवै।
पूँगी फल जुत जल निरमल धरि, आनी भरि कुंडी जो जनक की।
खेलत जूप सकल जुबतिनि मैं, हारे रघुपति जिती जनक की।
धरे निसान अजिर गृह मंगल , बिप्र वैद अभिषेक करायौ।
सूर अमित आनंद जनकपुर, सोइ सुकदेव पुराननि गायौ।।25।।