करूँ कुछ भी, कहूँ कुछ भी, चाहता पर मैं तुम्हें ही।
जनक-जननी, हित-स्वजन में, चाहता हूँ मैं तुम्हें ही॥
पुत्र-मित्र, कलत्रगण में, चाहता हूँ मैं तुम्हें ही।
विषय-इन्द्रिय-बुद्धि-मन में, चाहता हूँ मैं तुम्हें ही॥
शक्ति-सुख-सपन्न तन में, चाहता हूँ मैं त्तुम्हें ही।
अतुल-वैभव, विपुल धन में, चाहता हूँ मैं तुम्हें ही॥
सुखद शुभ सुन्दर सदन में, चाहता हूँ मैं तुम्हें ही।
कीर्ति-यश-कमनीय धन में, चाहता हूँ मैं तुम्हें ही॥
भूमि-जल-पावक-पवन में, चाहता हूँ मैं तुम्हें ही।
सब जगह व्यापक गगन में, चाहता हूँ मैं तुम्हें ही॥
तुम्हें जानूँ, या न जानूँ, चाहता पर मैं तुम्हें ही।
चाहता मैं पूर्ण सुख हूँ, चाहता इससे तुम्हें ही।
चाहता मैं नित्य सुख हूँ, चाहता इससे तुम्हें ही॥
चाहता मैं अमर-जीवन, चाहता इससे तुम्हें ही।
चाहता स्वाधीन-जीवन, चाहता इससे तुम्हें ही॥