करुनामई रसिकता है तुम्हरी सब झूठी
जब ही लौं नहि लखौ तबहि लौ बांधी मूठी
मैं जान्यौ ब्रज जाय कै, तुम्हरो निर्दय रूप
जो तुम्हरे अवलम्ब हीं, वाकौ मेलौ कूप
कौन यह धर्म है
पुनि पुनि कहैं जु जाय चलो वृन्दावन रहिये
प्रेम पुंज कौ प्रेम जाय गोपिन संग लहिये
और काम सब छाँरि कै, उन लोगन सुख देहु
नातरु टूट्यो जात है अब हि नेह सनेहू
करौगे तो कहा
सुनत सखा के बैन नैन भरि आये दोउ
विवस प्रेम आवेस रही नाहीं सुधि कोऊ
रोम रोम प्रति गोपिका, ह्वै रहि सांवर गात
कल्प तरोरुह सांवरो ब्रजवनिता भईं पात
उलहि अंग अंग तें