करमैतीबाई

करमैतीबाई
करमैतीबाई
पूरा नाम करमैतीबाई
जन्म भूमि खण्डेला ग्राम, जयपुर (राजस्‍थान)
मृत्यु स्थान वृन्दावन, मथुरा
अभिभावक पिता- पण्डित परशुराम जी
कर्म भूमि भारत
नागरिकता भारतीय
अन्य जानकारी करमैतीबाई का मन पूर्व संस्‍कारवश लड़कपन से ही श्‍यामसुन्‍दर में लगा हुआ था। वह निरन्‍तर श्रीकृष्‍ण के नाम का जप किया करतीं और एकान्‍त स्‍थल में श्रीकृष्‍ण का ध्‍यान करती हुई ‘हा नाथ! हा नाथ!’ पुकारा करती थीं।

करमैतीबाई जयपुर के अंतर्गत आने वाले खण्डेला राज्य के कुल पुरोहित पण्डित परशुराम की सद्गुणवती पुत्री थीं। करमैती का मन पूर्व संस्‍कारवश लड़कपन से ही श्‍यामसुन्‍दर में लगा हुआ था। वह सदैव भगवान श्रीकृष्ण के नाम का ही स्मरण किया करती थी। इन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय वृन्दावन धाम, मथुरा में व्यतीत किया। वे बड़े ही त्‍यागभाव से रहती थीं। उनका मन क्षण-क्षण में श्रीकृष्‍ण के रूप का दर्शन करके मतवाला बना रहता था।

परिचय

जयपुर में खण्‍डेला नामक एक स्‍थान है। वहाँ शेखावत सरदार राज्‍य करते थे। पण्डित परशुराम जी खण्‍डेला राज्‍य के कुल-पुरोहित थे। करमैतीबाई इन्‍हीं भाग्‍यशाली परशुराम जी की सद्गुणवती पुत्री थीं। करमैती का मन पूर्व संस्‍कारवश लड़कपन से ही श्‍यामसुन्‍दर में लगा हुआ था। वह निरन्‍तर श्रीकृष्‍ण के नाम का जप किया करतीं और एकान्‍त स्‍थल में श्रीकृष्‍ण का ध्‍यान करती हुई ‘हा नाथ ! हा नाथ !’ पुकारा करतीं। ध्‍यान में उसके नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगती। शरीर पर पुलकावलि छा जाती। प्रेमावेश में वह कभी हँसती, कभी रोती और कभी ऊँची सुरीली आवाज से कीर्तन करने लगतीं। नन्‍ही-सी बालिका का सरल भगवत्‍प्रेम देखकर घर के और आसपास के सभी लोग प्रसन्‍न होते थे।[1]

विवाह

करमैती की उम्र विवाह के योग्‍य हो गयी, पिता-माता सुयोग्‍य वर की खोज करने लगे; परंतु करमैतीबाई को विवाह की चर्चा नहीं सुहाती। वह लज्‍जावश माता-पिता के सामने कुछ बोलती तो नहीं, परंतु विषयों की बातें उसे विष के समान प्रतीत होतीं। इच्‍छा न होने पर भी पिता की इच्‍छा से उसका विवाह हो गया; परंतु वह तो अपने-आपको विवाह पूर्व ही, बल्कि पूर्वजन्‍म में ही भगवान को अर्पण कर चुकी थी। भगवान की वस्‍तु पर दूसरे का अधिकार होना वह कैसे सहन कर सकती थी। वह तो इस संसार के परे दिव्‍य प्रेम-राज्‍य के अधीश्‍वर नित्‍य नवीन चिरकुमार सौन्‍दर्य की राशि श्‍याम-वदन सच्चिदानन्‍द को वरण कर दिन-रात उन्‍हीं का चिन्‍तन किया करती थी। कुछ दिन तो यों ही बीते, परंतु एक दिन ससुराल वाले उसे लेने को आ गये। उसे पता लगा कि वह जिस घर में ब्‍याही गयी है, वहाँ के लोग भगवान को नहीं मानते, वे वैष्णवों और संतों के विरोधी हैं; वहाँ उसे अपने प्‍यारे ठाकुरजी की सेवा का भी अवसर नहीं मिलेगा और अपने शरीर-मन को विषय-सेवा में लगाना पड़ेगा। यह सब सोच-विचारकर वह व्‍याकुल हो उठी, मन-ही-मन भगवान को स्‍मरण कर रोने लगी। उसने कहा- "नाथ ! इस विपत्ति से तुम्‍हीं बचाओ। क्‍या यह तुम्‍हारी दासी बनायी जायगी? क्‍या तुम इसे ऐसा कोई उपाय नहीं बतला दोगे, जिससे यह तुम्‍हारे व्रजधाम में पहुँचकर वहाँ की पवित्र धूलि को अपने मस्‍तक पर धारण कर सके?"

गृह त्याग

घर में माता-पिता बेटी को ससुराल भेजने की तैयारी में लगे हैं, इधर करमैती दूसरी ही धुन में मस्‍त है। रात को थककर सब सो गये, परंतु करमैती तो भगवान से उपर्युक्‍त प्रार्थना कर रही है। अकस्‍मात उसके मन में स्‍फुरणा हुई कि जगत की इस विषय-वासना में, जो मनुष्‍य को सदा के लिये प्‍यारे भगवान से विमुख कर देती है, रहना सर्वथा मूर्खता है। अत: कुछ भी हो, विषयों का त्‍याग ही मेरे लिये सर्वथा श्रेयस्‍कर है। करमैती ने विचारकर आधी रात के समय, अन्‍धकार और सन्‍नाटे को चीरती हुई करमैती निर्भय चित्त से अकेली ही घर से निकल गयी। जो उस प्राण प्‍यारे के लिये मतवाले होकर निकलते हैं, उन्‍हें किसी का भी भय नहीं रहता। आज से पूर्व करमैती कभी घर से अकेली नहीं निकली थी, परंतु आज आधी रात के समय सब कुछ भूलकर दौड़ रही है। कोई साथ नहीं है। साथ हैं भक्‍तों के चिर-सखा-सदासंगी भगवान श्‍यामसुन्‍दर, जिनका एक काम ही शरणागत-आश्रित भक्तों के साथ रहकर उनकी रक्षा करना है।

भगवत्‍प्रेम में मतवाली करमैती अन्‍धकार को भेदन करती हुई चली जा रही है। उसे यह सुधि नहीं है कि मैं कौन हूँ और कहाँ जा रही हूँ। वह तो दौड़ी चली जा रही है। रातभर में कितनी दूर निकल गयी, कुछ पता नहीं। प्रात:काल हो गया, पर वह तो नींद-भूख को भुलाकर उसी प्रकार दौड़ी जा रही है। इधर सबेरा होते ही करमैती की माता ने जब बेटी को घर में नहीं पाया, तब रोती हुई अपने पति परशुराम के पास जाकर यह दु:संवाद सुनाया। परशुराम को बड़ा दु:ख हुआ, एक तो पुत्री का स्‍नेह और दूसरे लोक-लाज का भय ! यद्यपि वह जानता था कि मेरे बेटी विषय-विराग और भगवद्नुराग के कारण ही कहीं चली गयी है, तथापि गाँव के लोग न मालूम क्‍या-क्‍या कहेंगे, मेरी सती पुत्री पर व्‍यर्थ कलंक लगेगा। इन विचारों से वह महान दु:खी होकर अपने यजमान राजा के पास गया। राजा ने पुरोहित के दु:ख में सहानुभूति प्रकट करते हुए चारों ओर सवार दौड़ाये। दो घुड़सवार उस रास्‍ते भी गये, जिस रास्‍ते से करमैती जा रही थी। दूर से घोड़ों की टाप सुनायी दी, तब करमैती को होश हुआ। उसने समझा, हो-न-हो ये सवार मेरे ही पीछे आ रहे हैं; परंतु वह छिपे कहाँ ? न कहीं पहाड़ की कन्‍दरा है और न वृक्ष का ही कोई नाम-निशान है। रेगिस्‍तान-सा खुला मैदान है। अन्‍त में एक बुद्धि उपजी। पास ही एक मरा हुआ ऊँट पड़ा था ! सियार-गिद्धों ने उसके पेट को फाड़कर मांस निकाल लिया था। पेट एक खोह की तरह बन गया था। करमैती बेधड़क उसी सड़ी दुर्गन्‍ध से पूर्ण ऊँट के कंकाल में जा छिपी। सवारों ने उस ओर ताका ही नहीं। तीव्र दुर्गन्‍ध के मारे वे वहाँ ठहर ही नहीं सके। करमैती के लिये तो विषयों की दुर्गन्‍ध इतनी असह्य हो गयी थी कि उसने उस दुर्गन्‍ध से बचने के लिये इस दुर्गन्‍ध को बहुत तुच्‍छ समझा या प्रेम-पागलिनी भक्त बालिका के लिये भगवत्‍कृपा से वह दुर्गन्‍ध महान सुगन्‍ध के रूप में ही परिणत हो गयी। जिसकी कृपा से अग्नि शीतल और विष अमृत बन गया था, उसकी कृपा से दुर्गन्‍ध का सुगन्‍ध बन जाना कौन बड़ी बात थी। तीन दिन तक करमैती ऊँट के पेट में प्‍यारे श्‍याम के ध्‍यान में पड़ी रही। चौथे दिन वहाँ से निकली। थोड़ी दूर आगे जने पर साथ मिल गया।

वृन्दावन आगमन

करमैती ने पहले हरिद्वार पहुँचकर भागीरथी में स्‍नान किया, फिर चलते-चलते वह साँवरे की लीलाभूमि वृन्दावन में जा पहुँची। उस जमाने में वृन्‍दावन केवल सच्‍चे विरागी वैष्‍णव साधुओं का ही केन्‍द्र था। वहाँ चारों ओर के मतवाले भगवत्‍प्रेमियों का ही जमावड़ा रहा करता था, इसी से वह परम पवित्र था और इसी से भक्‍तों की दृष्टि उसकी ओर लगी रहती थी। वृन्‍दावन पहुँचकर करमैती मानो आनन्‍दसागर में डूब गयी। वह जंगल में ब्रह्मकुण्‍ड पर रहने लगी। प्रेमसिन्‍धु की मर्यादा टूट जाने से उसका जीवन नित्‍य अपार प्रेमधारा में बहने लगा।

पिता से पुन:र्मिलन

इधर परशुराम को जब कहीं पता न लगा, तब वह ढूँढ़ते-ढूँढ़ते वृन्‍दावन पहुँचा। वृन्‍दावन में भी करमैती का पता कैसे लगता। जगत के सामने अपनी भक्ति का स्वाँग दिखाने वाली वह कोई नामी-गरामी भक्त तो थी ही नहीं, वह तो अपने प्रियतम के प्रेम में डूबी हुई अकेली जंगल में पड़ी रहती थी। एक दिन परशुराम ने वृक्ष पर चढ़कर देखा तो ब्रह्मकुण्ड पर एक वैरागिणी दिखायी दी; वह तुरंत उतरकर वहाँ दौड़ा गया। जाकर देखता है, करमैती साधु-वेश में ध्‍यानमग्‍न बैठी है। उसके मुख पर भजन का निर्मल शीतल तेज छिटक रहा है। आँखों से प्रेम के आँसुओं की अनवरत धारा बह रही है। परशुराम पुत्री की यह दशा देखकर हर्ष-शोक में डूब गया। पुत्री की बाहरी अवस्‍था पर तो शोक था और उसके भगवत्‍प्रेम पर उसे बड़ा हर्ष था। वह अपने को ऐसी भक्तिमती देवी का पिता समझकर धन्‍य मान रहा था।

परशुराम वहाँ बैठे कई घंटे हो गये। वह उसकी प्रेम-दशा देख-देखकर बेसुध-सा हो गया, पर करमैती नहीं जागी। आखिर परशुराम ने उसे हिलाकार होश कराया और बहुत अनुनय-विनय के साथ घर चलकर भजन करने के लिये कहा। करमैती ने कहा- "पिताजी! यहाँ आकर कौन वापस गया है। फिर मैं तो उस प्रेममय के प्रेम-सागर में डूबकर अपने को खो चुकी हूँ, जीती हुई ही मर चुकी हूँ। यह मुर्दा अब यहाँ से कैसे उठे? आप घर जाकर मेरी माता सहित श्रीकृष्‍ण का भजन करें। इसके समान सुख का साज त्रिलोकी में कहीं दुसरा नहीं है।" भगवान के गुण गाते-गाते प्रेमावेश में करमैती मूर्च्छित हो गयी। ब्राह्मण परशुराम ने अपने संसारी जीवन को धिक्‍कार देते हुए उसे जगाया और श्रीकृष्‍ण-भजन की प्रतिज्ञा करके प्रेम में रोता हुआ वहाँ से घर लौटा। घर पहुँचकर उसने गृहिणी को पुत्री के समाचार सुनाकर कहा कि ‘ब्राह्मणी ! तू धन्‍य है जो तेरे पेट से ऐसी सन्‍तान पैदा हुई। आज हमारा कुल पवित्र और धन्‍य हो गया।'

राजा ने यह समाचार सुना, तब वह भी करमैती के दर्शन के लिये वृन्‍दावन को चल दिया। राजा ने वृन्‍दावन पहुँचकर करमैती की बड़ी ही प्रेम-तन्‍मय अवस्‍था देखी। राजा का मस्‍तक भक्तिभाव से उसके चरणों में आप ही झुक गया। राजा ने कुटिया बना देने के लिये बड़ी प्रार्थना की, परंतु करमैती इन्‍कार करती रही। अन्‍त में राजा के बहुत आग्रह करने पर कुटिया बनवा दी। सुनते हैं कि करमैती की कुटिया का ध्‍वंसावशेष अब भी है।

मृत्यु

करमैतीबाई बड़े ही त्‍यागभाव से रहती थी। उसका मन क्षण-क्षण में श्रीकृष्‍ण के रूप का दर्शन करके मतवाला बना रहता था। उसकी आँखों पर तो सदा ही वर्षा-ऋतु छायी रहती थी। यों परम तप करते-करते अन्‍त में इस तपस्विनी देवी ने देह त्‍यागकर गोलोक की शेष यात्रा की।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 पुस्तक- भक्त चरितांक | प्रकाशक- गीता प्रेस, गोरखपुर | विक्रमी संवत- 2071 (वर्ष-2014) | पृष्ठ संख्या- 721

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