करत मोहि कछुवै न बनी।
हरि आए चितवत ही रही सखि, जैसै चित्र धनी।।
अति आनंद हरष आसन उर कमल कुटी अपनी।
न्यौछावरि अचल फहरनि, दृग अर्घ जु धार धनी।।
गुरुजन लाज कछु न सकी कहि सुनि मन बुधि सजनी।
हृदय उमँगि अछु कलस प्रगट भए, टूटी तरकि तनी।।
अब उपजति अति-लाज मनहिं मन समुझत निज करनी।
तदपि 'सूर' मेरी जड़ता प्रभु, मंगल माँझ गनी।।1880।।