करतल सोभित बान धनुहियाँ।
खेलत फिरत कनकमय आँगन, पहिरे लाल पनहियाँ।
दसरथ कौसिल्या कै आगै, लसत सुमन की छहियाँ।
मानौ चारि हंस सरबर तै बैठे साइ संदेहियाँ।
रधुकुल-कुमुद-चंद चितरमनि, प्रगटे भूतल महियाँ।
आए ओप देन रघुकुल कौं, आनंद-निधि-सब कहियाँ।
सुख यह तीनि लोक मैं नाहीं, जो पाए प्रभु पहियाँ।
सूरदास हरि बोलि भक्ति कौं, निरवाहत गहि बहियाँ।।19।।