कमलनैन बस कीन्हे मुरली बोलि मधुर मृदु बैन।
सब विकथित कीन्हे एकहिं धुनि मुनिजन खग मृग धेनु।।
मुरली मनहर साँवरै करपल्लव निज बास।
अधर लागि सरबस लई अंमृत रस की रास।।
ब्रज नरनारि दसौ दिसि जमुना पसु पच्छी द्रुम बेलि।
तब धुनि सुनि मुनि-जन-मन मोहे त्रिभुवन सुख रत केलि।।
अब तौ हेत हमसौं नही जेतौ तुमसौ हेत।
हम चितवति ठाढी सबै तुमहिं अधर-रस देत।।
जानि बूझि कै वै करहिं एक जाति द्वै भाँति।
पगतिभेद भलौ नही बुरौ सु यह उतपात।।
जातिपाँति मदगरब तै रही सकल जग जीति।
‘सूर’ सुमृति स्रुति मेटिकै चली आपनो रीति।। 29 ।।